देवीप्रताद ऐतिद्यासिक पुस्तक्रमाला--१४
मध्यप्रदेश का इतिहास
तेपफ.. फेसतराच्चीय शान मन्दिर, जयपु
स्वर्गीय रायवहादुर डाक्टर हीरालाल
बी० ए०, एम० आर० ए० एश-
2] | 22
काशी नागरीप्रचारिणी सभा
प्रयम एस्करण ] श्श्ध्द् [ मूल्य १॥]) ए०
प्रकाशक
प्रधान मंत्री,
मागरीप्रचारिणी सभा,
काशी
मृद्रक
अपूर्वक्षष्ण बोस,
इडियन प्रेस, लिमिटेड,
बनारस-ब्रांच
साला का परिचय
जेधपुर के स्वर्गीय मुंशी देवीप्रसाद जी संसिफ इतिद्दास और विशेषत
मुसक्षिम-काल के भारतीय इतिद्दास के बहुत बड़े ज्ञावा और प्रेमी थे तथा
राजकीय सेवा के कामों से वे जितना समय बचाते थे, वह्द सब वे इतिहास
का अध्ययन और स्लेज करने अथवा ऐतिहासिक मथ लिसने में दी
लगाते थे। हिंदी में उन्होने अनेक उपयागी ऐतिदासिक प्रथ लिसे हैं
जिनका हिंदी-ससार ने अच्छा आदर किया है।
श्रीयुक्त मुशों देवीप्रसाद की वहुत दिनों से यद्द इच्छा थी हरि हिंदी में
ऐतिद्दासिक पुस्तकों के प्रकाशन की विशेष रूप से व्यवस्था की जोय। इस
फाये के लिये उन्दोंने ता० २१ जूड १९१८ के ३५०० २० अक़ित मूल्य
और ९०५०० रु० मूल्य के घंधई घक लि० फे सात हिस्से सभा के प्रदान
किए थे और प्रदेश किया था कि इनकी आय से उनके नाम से सभा एक
ऐतिद्वासिक पुस्तऊुमाला प्रकाशित करे। उसी के अनुसार सभा यह
ददेवीप्रसाद ऐतिहासिक पुस्तफमाला” भ्रकाशित कर रहो है। पीछे से जब
घचई घंक अन््यान्य देने प्रेसीढेंसी वंकों के साथ सम्मिलित द्वाकर 8 पीरियल
घंक के रूप में परिणत हे। गया, तब समा ने बंधई घक के हिस्से के बदले
में इपीरियल्त घंक के चैदृह हिस्से, मिनके मूल्य फा एक निश्चित अंश
चुफा दिया गया है, और सरोद लिए और अब यह पुस्तकमाला उन्ही से
द्वोने वाली तथा स्वयं अपनी पुस्तकों की बिक्री से द्वोने चालो आय से चल
रही है। सुशी देवोप्रसाद फा चष्ठ दानपनत्र काशी नागरी-प्रचारिणो
सभा के २६ वे धार्षिक विवरण में प्रकाशित हुआ है ।
आभास
मध्य प्रदेश के इतिहास को, स्वय डाक्टर द्वीरालाल के हाथ की
लिखी, प्रति स्वर्गवासी डाक्टर काशौप्रसाद जायसवाल को डाक्टर द्वीरा-
लाल फे भवीजे से प्राप्त हुई थी। उसे स्व० जायसवालजी ने काशी
नागरीप्रचारिणी सभा के पास भेज दिया कि वद्द इसका उचित उपयोग
फरे। यहद्द हस्तलिसखित प्रति बहुद दिनों तक पडी रद्दी। श्रत में यह
निश्चय हुआ कि यद्द इतिद्दास प्रफाशित फर दिया जाय। उसी
मिश्यय फे अनुसार यह्व प्राशित फ़िय्रा जाता है ।
श्री रा््टुल सांझृत्यायनजी ने लिखा शै--“अन्य विपये! के
विद्वान् ता हौरालालजी घे ही, फितु ये फलचुरि-इतिहास का ऐसा
शान रपते थे जैसा इस समय तक भारत में किसी को नहीं है ।
आगे भी उस तरद्द का ज्ञाता कब फोई द्वो सकेगा, नदी कद्दा जा
सकफता। उनकी झायु श्यौर स्वास्थ्य फो देसकर दम लोगों फा
यहुत डर लग रहा था फि फहीं हमारे देश फो इस ज्लानराशि से
वचित न है। जाना पडे। एमने बहुत तरद् से कद्दा था--भाप
फलघुरि-फाक्ष फे इतिदास की शोध लिसया दीजिए ।? वे भी इसके
महत्त्व को समझते थे पार वय हुमा था कि साथ में एक लेसफ
रापफर ये इतिदास लिखवा देंगे। पिछली गर्मियों में दहासा में रहते
समय मेरी यह घारणा थी कि फलचुरि इतिददौस तैयार दे रद्दा दागा।
४ ४ >» जब जब एयाज़् भावा हैं कि फलचुरि-इतिह्ठास का लेसक
चक्षा गया भार भव इसको दस योग्यवा फा फलचुरि इतिदाम लियने-
बाल्षा नहीं मिलेगा तब यहुत सेद द्वोाता है। ४ & ३ इतिद्दास
पक ऐसा विषय ईू ज्ञो सानशोल भार अष्ययनशील व्यक्ति की पश्रायु-
वृद्धि के साथ झपिक परिपक्व दोता जादा है। » ३ ै< ग्व० राय
बद्दादुर फा इतिद्यास भ्रउशोलन प्रेग शौर भक्ति से सबंध रपता था 7१
( २ )
श्री जयचंद्र विद्यालंकारजी इस संबंध में लिखते हैँ--./चेदि की
भूमि, जातियों, वेलियों और इतिहास का जैसा ज्ञान राय बहादुर
हीरालाल का था, हमारे जमाने सें वैसा ओर क्लिसी को नहीं है।
उन्होंने अपनी उम्र उसी के अध्ययन में लगा दी थी। इसी लिये
उससे मैंने प्राथना की कि वे अपने ज्ञान को अपने पीछे श्ानेवालों
के लिये भी छोड़ जाय। मेरी प्राथना पर पहले ते उन्होंने
कहा कि वे सब प्रकार के मेहनत के काम से निवृत्त हो चुके हैं, पर
सन् १-४३३ में उन्होंने आखिर वह प्राथना मान ली | उस संबंध में
उन्होंने एक पिछली घटना भी बताई ।
“भारत सरकार के पुरातत्व विभाग ने चेदि-अमभिलेखों के संपा-
दन का काम राय बहादुर हीरात्ाल का सोॉंपा था। तब इन्होंने
चेदि-इतिहास लिखने की पूरी तैयारी कर न्नौघी। उस अंघ के लिये
उन्हें १०] प्रति घष्ठ के द्विलाव से पारिश्रमिक देने को कहा गया
उन्हीं दिनें डाक्टर म्टाइन काने का खराजी-अमिलेखेां के संपादन का
काम सौंपा गया और उन्हें एक गिनी प्रति प्रष्ठ पारिश्रमिक देना तय
हुआ। होीरालालजी ने कहा कि वे या ते एक गिनी प्रति प्रृष्ठ ही छेंगे,
और नहीं ते। उस गंध का मुफ्त में प्रम्छठुत कर देगे। दूसरी दशा में
केवतल्ल उनके एक सहकारी का खर्चा सरकार को देना हेगा। सरकार
इस काम के लिये ४५०००) खच करने को तैयार थी; डायरेक्टर-जनरल
आव आक्योतलाजी के डर लगा कि कहीं हीराक्ाालनी के सहकारी
का ख्चे ५ हजार से अधिक न वढ़ जाय । इसलिये यह प्रस्ताव पड़ा
ही रह गया । सन् १८३३ सें डा० हीरालाल ने उस टले हुए कार्य
को कर डालने का इरादा किया। एक एस० ए० पास सज्जन की
अपना सहकारी नियत कर वे भंथ की सामग्री जुटाने लगे ।% & %?
ऊपर दिए गए अवतरणों से स्पष्ट है कि चेदि के इतिहास के
संवंध में चेदि-कीति-चंद्र डाक्टर हीरालाल का सिक्का जम्मा हुश्रा था |
उस इतिहास के कुछ अंशों की वे अगरेजी में और हिंदी में भी प्रका-
शित कर चुके थे। जबलपुर की अस्तंगत मासिक पत्निका 'श्रीशारदा?
(३)
के सवत् १७८७४ के मार्गशीप --फास्गुन, प्रौर सवतू १८८० फे चैन्र--
आबण तक तथा आख्विन फे झको में उक्त इतिहास का कुछ अश सिकला
था। उनके भनन््यान्य ग्रध---सागर-सरोज, दमे।ह-दीपक, जबल्पुर-
ज्योति आदि-उसी विषय पर दे । अरोशारदा? में प्रकाशित लेख-माला
को शुद्ध करके वे एकत्र रफ़्ते गए और उसके आगे का अश भी लिसकर
उन्हेंने उसमें सन्निविष्ट फर दिया। प्राय प्रत्येक अध्याय का देसकर
उन्होंने अत में हस्ताक्षर करके तारीस डाल दी थी।
फापियाँ देसने से ऐसा प्रतीत द्वोता दे कि उनका विचार सूक्रम
दृष्टि से इसके सपादन करने का था। फितु एक ते वृद्धावस्था, दूसरे
अस्वस्थता और सबसे भधिक अलुत्साह तथा अनवकाश ने वह समय ही
ले श्राने दिया। सगम्रह पडा रह गया और एक आझाध प्रसग की फापियों
पर ते भांगुरे। मे कृपा कर दो थो |
हर्षवर्धन का जे! प्रश पृष्ठ २€ पर मुद्वित है उसके आगे फापी
में कई प्रष्ठ सालो पडे हुए थे जिनसे ज्ञात होता है कि लेखक का विचार
इस विषय पर पृथकू पश्रध्याय लिसने का था, कि तु उसमें एक शब्द
भी वे आगे न लिस पाए | मैंने हिंदुस्तानी एफंडेमी, प्रयाग से प्रकाशित
“ए्जैबधनः में इसके अनुकूल विषय ढेँढा झै।र फाशी हिदु-विश्वविद्यालय
फे इतिद्दामाचाये डा० प्रिपाडी से भी विचार-विनिमय किया कितु
कुछ लिखते योग्य साममी उपत्तब्ध न हो सकी। पता नहों, डाफ़्टर
साइथ इस भध्याय मे क्या क्या लिसना चाहते घे । इसी प्रकार वे
परिप्राजको की राजधानी का स्थल निर्देश प्लौर ठोक ठोक समिति भी
देगा भादतेथे। इसके लिये भो कापी में स्थान साली पडा थघा।
पता नद्दी, वे इस वध्य फा सकलन फर्दाँ से फरते शलौर उसके प्रमाण
में किन युक्तियों से काम लेते। जो हा, चेदि के इतिहास के
सवध में उनकी लिखी जो सामप्री प्राप्त थी वद्द एफन्र सन्निविष्ट
फरके इस ,',भ्राशा से प्रकाशित फी जा रहो है फि सभव है,
डाक्टर साहब का फोई समास-घर्मा आगे चलकर इसे सर्वीग-
पूर्ण फर सके |
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स्वगंवासी राय बहादुर डाक्टर हीरालाल, बी० ए०,
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विपय-सूची
विपय पृष्ठ
प्रधम अध्याय नकल १--४
मध्य प्रदेश - नवीन प्रदेश--अतर्विमाग--बतमान और प्राचीन
अंग |
द्वितीय अध्याय. ., रब ५ ४-८
प्रागैतिह्ा सिक काल--दपारएय --राम--का चंवीय॑--भीकृष्ण -
मद्दामारत |
छृतीय भ्रध्याय | * ८-१४
मौर्य काल--शिश्षुनाग व नदबंशी--मौयवश--अ्रशातर )
चतुर्थ भध्याय न १४-१७
विद्रोह फाल--शु ग--फारबेल--पश्राध्रम्तत्य ।
पचम अ्रष्याय. ७ ४ न १८-२५
गुप्त थेश-विक्रमादित्य--हूए-आामण--यशेधमेन्--
रानपिंतुल्व हुल--सेमवशी पाडब--जिक्लिगाधिपति |
पष्ठ अध्याय हर श २४-३०
विदर्भ -पाकाटर--शैलव शी--सप्ट्रवूट--हपंवर्दन ।
सप्तम भ्रष्याय +क ब० 2३००-४७
पलचुरि--प्राचीन राजधानी--त्रिपुरी--श्रादिराजा-गोलकी
मंद--चठाव उतार--गागेयदेव--7 णदेव--यश कर्णदेव--
प्रिपुरी के श्रतिम राजा-फलचुरिशास7-पद्धति--फलचुरि धर्म--
शिल्प श्रौर सादित्य
अ्रष्टम अध्याय 5 + ०० ४७-२६
रलपुरपे रेट्य--तुम्माण--रत्ापुर वे राजा-- रायपुरी शापा--
रापुरी राजात्रा वी शासन पद्धति |
नवम अध्याय हु » ४ मु ५६-६७
मद्दायाशल के छेटे-मेदे राजा--फयधा के तागवशौ--वाँ पेर
के सेमवशो |
(२)
विषय पृष्ठ
दशम अध्याय ,.. या ३५४ ६प८-७ १
नागवंशी--बध्तर के नागवंशी |
एकादश अध्याय ,.. ग श ७१-७४
विविध राजवंश --परमार--मुसलमानी श्राक्रमण--पड़िद्धार--
चदेल |
द्वारश अध्याय 3६36७ ०७ # ७३ ५न-७5प
मुसलमानों का मवेश--तुगलक-.खिलजी |
न्रयोदश अध्याय ,,. की श हक ७प-प५
मुसलमानी जमाना-फारुकी, इमादशाही, बम्दनी--फायकी---
मीरन आदिलखों और उसकी संतान--आदिलशाह आजिमे-
हुमायूं' और उसकी शाखा--अकवर और श्रसीरगढ़--
मुगल-शासन ।
चतुर्देश अ्रध्याय ... हर प५- डे
गो «ः “|
गेड़--गेंड-वंशेत्पत्ति--यथार्थ मूल--सआमशाह-दुर्गा वती --
हिरद्यशाह--गांडू--गें इ-धमं--गोंड-शासन-पद्धति ।
पंचदश अध्याय ० क ० कब ० न त९ ७ ५
बुदेले--हिरदयशाह बुदेला।
पेडश अध्याय .., गे ब्न.।. २१०२-१०४५
मराठे--नागपुर के भेसले--ब्रिटिश-राज्य---
राय बहादुर डाक्टर हीरालाल बी० एु०
राय बहादुर डाक्टर हीरालाल के पिता ईश्वरदास साधु-सततों के
बडे भक्त थे। रामचरितमानस का अध्ययन वे बडी लगन से
किया करते थे। इनके पूर्वन सह्दावा फे समीप सूपा गाँव में रहते थे ।
बहाँ से इनकी बिरादरी के कोई २०० घर व्यापार के लिये बिलहरी में
आरा बसे थे। इन्हीं लोगों के साथ डाक्टर साहब के पूर्यपुरुष कालू-
राम आए भे। इनके पुत्र नारायणदास विलहरी से & मील पर मुड-
बारा ( जिला जबलपुर ) में आ बसे । ये बडे रासायणी थे प्रार अर्थ
बतलाने की निपुणता की कारण ये, फलवार होते हुए भी, पाठक! कह-
लाते थे। इनके पुत्र मनबेधराम भी बडे रामायणी हुए। ये सपन्न थे।
इन्द्रों फे पुत्र ईश्वरदास थे, जिनके पुत्र दीरालाल भोौर गेकुलप्रसाद हुए।
डाक्टर दीरालाल फा जन्म आखिन शुक्त ४ सबत् १७२४
सगलवार फो मुडबारा में हआथा। पढने में वे बहुत ही तेज थे।
सन् १८५८९ में उन्होंने प्रथम श्रेयी में मिडिल पास किया | शअब उन्हें
छात्रवृत्ति मिलने लगी। जबलपुर जाऊर वे हाई स्कूल में भर्ती हुए,
लेकिन माता पिता ही भाज्ञा से उन्हें रसोई स्वय चनानी पडती थी।
दे वर्ष में इट्रेस परीक्षा पास करके उन्होंने कालेज में नाम लिखाया
और सन् १८८८ में वे घी० ए० पास हुए। उनके जन्म स्थान में उस
समय तक्ल॒ कदाचित् किसी ने कालेज की शिक्षा नद्दों पाई थी और
उन्दोंने किया था प्रथम श्रेणी में बी० ए० पास, इसलिये फूलों से खदे
हुए हाथी पर विठलाकर धूप्रधाम से उनका जुलूस निम्राला गया |
ठाकुर जगमेहनसिद काशी से लाटकर अपने घर जाते समय
कदनी ( मुडवारा ) में ठहरे, तब वहाँ फे मिडिल्र स्कूल के शिक्षकों मे
उन्हें अपनी शाला फे निरीक्षण के लिये निमण्नित किया। निमन्रण
स्वीकार कर आपने केवल निरोक्षण ही नहों किया, वरन् प्रत्येक कच्चा
मा,
की परीक्षा भी छी। जब आंप हिंदी की तीसरी कक्षा में पहुँचे और
उसकी परीक्षा ली तब श्री हौरात्चालजी का पारिताषिक प्रदान कर बढ़ी
प्रसन्नता प्रकट की | उस कन्षा के शिक्षक संस्कृतज्ञ थे। वे ठाकुर
साहव की रुचि से अनभिज्ञ न थे | अकस्मात् वेले--“हेनदहार
विरवान के होत चीकने पात |--यह लड़का संस्कृत अच्छी तरह
पढ़ेगा |? विद्यार्थी हीराज्ञाल ने तव तक संस्कृत का नाम भी न सुना
था। उन्होंने समझा, कदाचितू भूगोल आदि के समान ही संम्कृत भी
कोई विषय हैगा। इसलिये छुट्टों पाते ही एक पैसे का कागज खरीद
लाए और शिक्षक के पास जाकर निवेदन किया---“आप इस पर संस्कृत
लिख दीजिए, मैं उसे दे-एक दिन में पढ़ डालूँ ।? शिक्षक बड़े कृपालु
थे, उत्साह भंग नकिया। बड़ी चतुराई के साथ समभ्रा-बुकाकर
उन्होंने भ्रपना पिंड छुड़ाया । किंतु डाक्टर साहव संस्क्ृतवाली घटना
फी भूल नहों गए। उन्होंने आगे चलकर संस्कृत का अध्ययन खूब
सन लगाकर किया |
बी० ए० है। जाने के पश्चात् आप हाई स्कूल में अस्थायी रूप से
सास्टर हुए; फिर मांस्टरों का पदार्थ-विज्ञान की शिक्षा देने का काये आपको
सौंपा गया। विचित्र दृश्य था, बड़ो भ्रवस्था के मास्टरों का तरुण हीरा-
लाल पढ़ाते थे श्रीर इन मास्टरों में छुछ ऐसे भी थे जिन्होंने इनका पढ़ाया
था। इस कारण ये उनका गुरुवत् आदर किया करते थे। इसके
पश्चांतू आप स्कूलों के डिपटी ईइंसपेक्टर हुए ओर इस कास का आपने
इतनी लगन से किया कि उसका व्याोरा सुनकर विस्मित होना पढ़ता
है। कई जिलों में इस पद् पर रह चुकने के अनंतर आप एजेंसी ईस-
पेक्टर बना दिए यए | इस काम का १८ महीने तक सफल्लतापूबऋ
करने पर आप छत्तीसगढ़ कमिश्नरी (मध्यप्रदेश) के इंसपेक्टर बनाए गए।
सन् १८८७ में एक भीषण अकाज्ष पड़ा । इसका प्रकाप बाला-
घाट जिल्ले पर अधिक था। अतएव वहाँ के दुमिक्ष-पी ड़ितें की सहा-
यता के लिये आप नियुक्त किए गए. क्योंकि आप इस काम का एक
वार और सफलतापूर्वक कर चुके थे किंतु छत्तीसगढ़ से बालाघाढ दूर
(३)
थी, इस कारण आप वहाँ एक्स्ट्रा असिस्टेंट कमिश्नर बनाकर सैज्र दिए
गए। वहाँ आपने कड़ी मेहनत से जनता को सेवा की । श्र॒भी यह
कार्य समाप्त भी न हा पाया था कि सन् १८०१ क्षी मनुष्य-गणना का
समय आ गया। छत्तीसगढ़ के कमिश्नर ने आ्रापको रायपुर जिले फी
समुष्य-गणना के लिये विशेष रूप से माँग लिया ) यह काम पूरा होते
ही आप मध्यप्रदेश की मनुष्य गएना के भ्रसिसटेंट सुपरिटेंडे ढ बना दिए
गए । कई भाषाओं के झ्ञाता होने और मध्यप्रदेश की भाषाओं, जातिये
तथा विपिध धर्मो की अभिज्ञता रसने के कारथ आपके यह पद मिल्रा था |
प्रापकी बदली यहाँ से विज्ञासपुर के एक्स्ट्रा असिस्टेंट कमिश्नर
के पद पर हुई, कितु शीघ्र ही फिर यजेटियर का काम करने के लिये
आप नागपुर घुला लिए गए। यहाँ पर आपने बडे महत्त्व झा काम
किया | गजेटियर का काम पूरा करने के उपलक्य में सरकार ने भ्रापका
रायबहादुर बनाया । नागपुर से श्रापफा तबादला दे तीन स्थानों में
हश्रा। शत मे १6९१ फी मनुष्य गएना का ऊाये सेमालने को आप
फिर नागपुर घुलाए गए ]
एक बार आप भेडाघाट फे जल्प्रपात पलार सगमरमर की घट्टानों
की शोभा देसने फे लिये अपने एक मित्र के साथ न्ञाव पर रवाना हुए।
इसी समय कहों से एफ ददे भरी पुकार सुन पडो वचाप्रा, मरे ।'
भ्रापने चारों ओर देसा ते। मालूम हुआ कि कुछ लोगों पर मधुमक्सियाँ
झाकपमण फर रहो ई भार वे लोग अपने बचाव फे लिये पानी में
इबते-उतराते है। जहाँ की यद्द घटना है वहाँ नर्मदा गहरी थी।
पीडिते की पुझार सुनकर आपने प्राों की परवा न करके उन लेगें फी
बचाने का प्रयत्न किया। मित्र का तो उन्होंने किनारे पर उत्तार दिया
और स्वय बद्दां नाव ले गए जहां पर ये लोग कष्ट पा रहे थे और उनका
उद्धार कर लाए। इस धटना से ज्ञात द्वागा कि उनके हृदय में कितनी
सद्दानुभूति घी |
आप उपघार देने को अच्छा न समझते थे । झापकी इसका कट
अनुभव द्वो चुका घा। एक बार आपके एक बीमार मित्र फी रुपये की
8.)
जरूरत हुई आपके यह वात बताई गई और कद्दा गया कि आप
आपस में लेन-देन नहीं करते हैं ते अमुक स्थान से उन्तका उधार दिलवा
दीजिए। जब मिन्न ही मित्र की सहायता न करेगा ते कौन करेगा ९
आपने उत्तर दिया कि तव कजे का बहाना क्यों करते हा, सहायता
सॉँगो और आपने इ'पीरियल्त बैंक पर कारा चेक काठ दिया और कह
दिया कि जितने रुपयों की जरूरत दो, ज्ते लो ।
पुरातत्तत से डाक्टर साहव का गँठजाड़ा केसे बेधा, यह भी
एक विचित्र घटना है। छोटे साहब को पद पर नियुक्त हुए आपको
कुछ ही दिन हुए थे। वे द्वारे पर थे। एक आम में उन्हें पता चलता
कि वहाँ के मंदिर के एजारी के पास कुछ वाम्रपट हैं जिन पर बड़ी
विलक्षण भाषा में कुछ लिखा हुआ है । लोगों कं विश्वास था कि वे
किसी खजाने के वीजक हैं। पुजारी उन्हें वड़ी सावधानी से रखता
था। इनकी पूजता सी था। आपने उन्हें देखना चाहा, पर पुजारी
टाल्मटाल करने ज्गा। वह समझता था कि वीजक का पढ़कर सर-
कार उस खजाने की ले लेगी और शायद पुजारी पर कुछ विपत्ति भी
पढ़े। जब उसे विश्वास दिल्लाया और कहा कि धन होगा ते तुमे
ही पहले बताया जायगा तव उसने ताम्रपट दिए। ताम्रपटों को पढ़ने
की आपके बड़ी उत्कंठा थी किंतु अपरिचित लिपि का क्येंकर पढ़ा
जाय । सरकारी काम से छुट्टी पाकर प्रतिदिव उनकी देखते-देखते अक्षरों
की पहचान हुईं। भाषा संस्कृत जान पड़ी। इससे अथ लगाकर उन
अक्षरों का भी पढ़ लिया जिनको पहचाना नहीं था । उनका सारांश
भी लिख लिया। इस दर्सियान आपका “एपीग्राफिया इ'डिका? का
एक अंक देखने के मिल्त गया । उसमें कई ताम्रपतन्नों की नकलें और
उनका अनुवाद आदि था | उसके देखने से पता चत्ला कि ऐसा विषय
कहाँ छपने को सेजा जाता है। अब आपने अपने पास के ताम्रपत्र का
लेख तैयार करके उक्त पन्न के संपादक के पास भेज दिया। वहाँसे
+ड़ा उत्साइवद्धक उत्तर आया | वह लेख राष्ट्रकूट राजवंश के संबंध में
बड़े काम का सिद्ध हुआ। लेख प्रकाशित हा गया। पुरस्कार के ४०॥
(४)
आपने दीौटा दिए, क्योंकि लेस आपने रुपए पैदा फरने फे लिये
नहों लिसा घा ।
झब आपके पास 'एपीग्राफिया इ डिक? के सपादक ने छुछ
ताम्रपन्न पासल द्वारा भेजे श्र लिखा कि इन्हें पढफ़र सपादित फर
दीजिए। आपने अनभिज्ञता प्रकट की, फिर भी आपसे आग्रह किया
गया झोर कुछ पुस्तकें भेजी गई जिनकी सद्दायता से प्राचीन लिपि पढी
जाती है। अत में आपने उस काये का सपन्न किया और फिर ता
अआ्राप उस ज़ेन्न के विशिष्ट व्यक्ति हा गए ।
आप पिता के बड़े भक्त थे । बातचीत में उनकी चर्चा छिडने पर
श्राप गदुगद है जाते थे । पिता को स्वृति रक्ता के लिये आपने 'ईश्वरी
ससकृत पाठशाला? का निर्माण किया और ईश्वरीपुरा बसाया। इसी प्रकार
भाईफी यादगार से अपने भवन के मुझ्य दरवाजे का नाम गोकुल
दरवाजा रखा । प्रोढ प्रवस्था में ही आ्रापको पत्नी वियोग हो गया था।
फितु दूसरा विवाह फरने का किसी का अ्राग्रह आपने नहों माना भैर
आप आजन्म एक-पत्नीत्रती तथा सदाचारपरायण रहे |
डाक्टर द्वीराज्नाल उपफार का स्मरण सदा रखते थे। एक बार
फलकसे जाने पर उन्होंने सुना कि वहाँ फहीं पर चारस ले साहब
भी रहते हैं। खबर पाते ही श्राप उनसे मिलने को उतावले दो गए |
ले साहब मध्य प्रदेश में भ्रफसर थे और उन्होंने एक बार ढा० हीरा-
लाक्ष को दैजा दे! जाने पर चिकित्सा का प्रवथ किया था। इस उप-
कार की डा० साहब कैसे भूलते। उन्होंने किसी तरह लो साहब के
स्थान का पता लगाकर उनके दशन किए । छृतज्ञता के ऐसे उदाहरण
आज कल विरले मिलते हैं ।
डाक्टर शीरालाल की दिनचयां बहुत ही व्यवस्थित और निर्धारित
रहतो थी । इसी से दे लियने पढने करी पर्याप्त समय पाठे और मिल्लनै-
जुलनेवाल्ों से मेंट भी कर लेते थे । स्वास्थर्षा फे लिये वे घूमने का
व्यायाम करते थे । जब कार्य फी अ्रधिकता के फारण बाहर टहलमें
को न जा पाते तब अपने बाग में हो चक्कर लगाते थे । उसका एक
(४६)
चक्कर २०० गज का था ओर १७-१८ चककरों में २ मील चलने का
व्यायाम है। जाता था। वे भाजन करने ओर सोने के समय की
पार्वदी रखते थे। एक बार नागपुर विश्वविद्यालय के हिंदी-साहित्य-
मंडल के वाषिक अधिवेशन में आझ्राप सभापति बनाए गए। रात के
&॥ बज गए। कार्यक्रम पूरा होने में विलंब देख आपने आसन से उठ-
कर कहा कि यदि आप लोग मुभे यह आआाज्ना दे दें कि मैं किसी अन्य
व्यक्ति का सभापतित्व सौपकर जा सकूँ तो बड़ो कृपा दे।, क्योंकि
मेरे सेने का समय हा गया है। आशा है, आप लोग मुझे चालीस
बर्ण के नियम की तोड़ने के लिये बाध्य न करेंगे |
फ्रांस के सुप्रसिद्ध विद्वान सिलवान लेवी ने कभी कहा था कि
साहित्य-सेवियों का एक ही गेत्र--सरस्वती गोत्र--हाोता है। सच्चा
साहित्यिक जब अन्य साहित्यिक से मित्षता है तो इस बात को भूत
जाता है कि हम लोगों में पहले की जान-पहचान भी है या नहीं।
ऐसी ही बात पं० ब्वाज्नादत्त शर्मा ने बाबू हीरेंद्रनाथ दत्त एम० ए०,
बी० एल०, वेदांत-र॒त्न से काशी में कही थी कि हम लोग आपके
साहित्य-परिवार के शिशु हैं / डाक्टर हीरालालन भी साहित्यिकों के
साथ ऐसा ही संबंध रखते थे ।
पद्य-परिवत्तन करने में भी डाक्टर साहब कुशल्ल थे। एक उदा-
हरण से पाठक उनकी रुचि का पता पा सरकेंगे--/ एक घरी आधी घरी
आधी हू में आध | कीन्हें संगति कविन की उपजत कविता-व्याथ ॥!
वैसे आप पद्य-रचना भी कर लेते थे किंतु आपका सुख्य क्षेत्र गद्य था ।
आपका सॉँवल्ा रंग, लंबा कद, भारी शरीर और हँसमुख चेहरा
था एवं शिशु जेसी सरत्तता थी। साफा बाँधते थे। आपसे बावचीव
करने पर यह पता नहीं लगता था कि जिलाधीश के उत्तरदायित्वपूर्ण
पद् पर आपने कार्य किया है।
डाक्टर हीरालाल वधो के डिपटी कमिश्नर थे जब महात्मा
गाँधी श्री जमनालाल बजाज के अतिथि हुए। पुलिस ने ऊँचे भ्रधिका-
रियो के यहाँ इसकी रिपेर्ट की और डाक्टर साहब को संकेत दिया गया
(७)
कि बजाज साहब पर दवाव डाले, जिसमें वे महात्माजी के सपके से
दूर रहें। आपने इस कार्य की ठीक न जानफर भी वज्ञान साहब को
समझाया फितु बज्ञाज साहब ने जे उत्तर दिया उसके आपने समुचित
समभकर छुछ कार्रवाई स की । इस पर गोरा पुलिस कप्तान नागपुर
जाकर श्ौंधो सीधी रिपोर्ट कर द्वाकिमों के कान भर आया। फल-
स्रूप कमिश्नर ने श्राकर बजाज साहब से जवाब तलब किया ते
उन्होंने करारी फटकार बतलाकर पदवी जै।टा दी और खुलकर महात्माणी
फे साथ हे लिए। इस विवाद से डाक्टर साहब की दरदर्शिता
और निर्भीकता प्रकट हा गई। वर्धा से आपका तवादल्ा किया गया
सही कितु आपकी सेजरिवता की छाप लग गई।
सम् १७१२ में आपके पिदा का देहात हुआ। उसी वर्ण
आपके एकमान्न पुत्र केदारनाथ की भो सत्यु हो गई जे विलायत में
वैरिस्टरी पढता था , कितु चीमार दे जाने के कारण घर बुना लिया
गया था। ऐसे से लडकी चल बसी । आपको भी दहज़ा दो गया और
चिकित्सा का प्रवध फरनेवाला घर पर कोई न था फ़ितु ले साहब की
कृपा से आपको रा की व्यवस्था हुई ।
आप नागरीप्रचारिणी सभा फे सदस्य सन् १८०२ से थे, सबतू
(८८९ में उपसभापति चुने गए, स० १८८२-८० तक सभापति रहे।
सन् १८१७ में सेन के निरीक्षक नियुक्त हुए। खेज फी रिपार्टो का
सपादन भाप बड़ी लगन से किया फरते थे। आपने सागर भूगोल,
शालाबाग, भौगोलिक नामार्थ-परिचय, दमे।ह-दीपक, जबलपुर-ब्येतति,
सागरसराज, मडलामयूस और वैराग्यलदरी आदि फई पुस्तजें हिंदी में
लिखी हैं। वैसे सरकारी पद पर रहने के कारण आपकी श्रधिकाश
रचनाएं श्ँगरेजी में लिसी गई हैं कितु द्विदी में भी आपने बहुत लिपा
है। अगरेजी फे कर दिदी फे अनेक पत्रों में आपके केश प्रकाशित
देते रहते थे । कई विश्व विद्याज्षयों फे आप परीक्तफ रहते घे ।
नागपुर विश्वविद्याक्षय द्वारा डाक्टर फी उपाधि मिलने पर
भ्रापफो बधाई देने एक सउन्नन गए ते आपने इँससे-हँसले फह्ठा--
(८)
“मैं इस उपाधि के संबंध में तुमसे एक बात कहे देता हूँ। वह यह कि
नागपुर विश्वविद्यालय ने जिन जिन सज्जनों का इस उपाधि से विभूषित
किया वे अधिक दिन इस संसार में नहीं रह सके। असुझ्ते तो ऐसा
प्रतीत होता है कि उपाधि का मिलना माने ईश्वरीय संकेत है कि मुभ्के
अब अधिक दिन नहीं जीना दै ।”
बड़ोदा ओरिय'टल्ल कान्फर्रेंस के अवसर पर आप वहाँ राज-
कीय अतिथि थे। वहाँ से लाट आने पर एक विनादपूर्ण घटना हुई।
बड़ौदा के शाही विश्वासगृह ने आपके पास लगभग १००) का सुरा!-विल
भेजा। उसे देखकर आप खिलखिलाकर अपने एक सहयात्री से
वेले--तुम सजे में रहे जे। प्रतिनिधियों के साथ ठहरे | मुझे १००) देने में
उज्न नहीं है पर प्रबल्त आपत्ति इस बात की है कि जिस मदिरा को मैंने
आजीवन अपने समीप नहीं आने दिया उसके विल्न का भुगतान कैसे
करूँ | अत में विश्रामग्रह के मैनेजर ने सूचना दी कि वह बिल भूल से
आपके यहाँ सेज् दिया गया है।
डाक्टर साहव स्लाजन करने के उपरांत बड़े कटारा भर गरस
दुध पिया करते थे। अपने एक मेहमान के, जिन्हें दूध से विशेष प्रेम
नथा, आपने सत्ताह दी थी कि दूध जरूर पिया करे। “भोजन के
बाद एक कटोरा गरस दूध नित्य पीने से साठ वर्ष की आयु में भी मेरी
तरह सब बाल काले रहते हैं |”
डाक्टर साहब को विद्याग्यसन के अतिरिक्त और कोई व्यसन न
था | वे पान तन्ञ न खाते थे | एक वार विज्ञायत जाने के लिये पासपेट
से लिया, जहाज का प्रबंध हा गया, बिदाई के लिये उन्हें पार्टियाँ भी
दो गई' । एक पार्टी से उनसे पान खाने का आग्रह विशेष रूप से
किया गया। उन्होंने सोचा, लोग नहों मानते हैं तो एक बीड़ा खा
लेने में हानि क्या है| खाने का ते बीड़ा खा लिया, किंतु उन्हें ठुरंत ही
चकर आ गया और स्वास्थ्य किड़ जाने से उस वार इन्हें अपनी यात्रा
रैक देनी पड़ी ।
( € )
डाक्टर साटब पतलूम के नीचे घेतती पहनते थे भार प्रतिदिन घे।ती
पहनकर नहाते थे। विलायत के द्ोटलों में हिंदुस्तानी ढग से नहाने
और घेती सुसाने का प्रवप नहों रहता । अपनी विल्ञायत-यात्रा फे समय
डाक्टर साहब वहाँ नहाकर घेवी को सूसने के लिये दीवाल के सहारे
फैला देंदे थे । इससे दा।टल का 'बालूपेपए सराब हे|ता घा। होटल फी
नौफरनी डाक्टर साहब से तो कुछ न कह सकी कितु उसने उनके साथी
के। अपनी कठिनाई बतलाई। पता पाकर डाक्टर साहब को बडा
सेद हुआ कि अ्रनजान में बहाँवालों का उनके कारण असुबिधा हुई ।
सन् १८८८ से ल्ञेकर सन् १८२२ तक आपने विभिन्न पदों पर
कार्य करके पे शन से ली थी ।
डाक्टर साइब फे प्रमुस मित्रों मे राय बहादुर प» लघ्नाशकर
भला बी० ए०, राय वहादुर प० बैजनाथ पड्या, राय बह्दादुर बाबू श्याम-
सुदरदास बो० ए०, डाक्टर फाशीप्रसाद जायसवाल वैरिस्टर, ढाक्टर
दीरानद शास्री एम० ए० और रा० ब० डाक्टर गोरीशकर हीराचद रोका
श्रादि रहे हैं। वैसे आप की परिचित सडली फी परपरा ते। बहुत बडी
है। आपके मध्य प्रदेशी मित्र आपको नागपुर विश्वविद्यालय का वाइस
चासल्षर बनाने के इच्छुक थे, कितु इसके लिये आपने नियमित रूप से
कुछ महीने नागपुर में रहना स्वीकार नहीं किया। पुरातत्व के पडित
के नाते आझाप पष्ठ ओरिय टल कान्फरेंस पठना के प्रधान बनाए गए
थे। वास्तव में इस प्रतिघ्ता फे आप सब्वबधा उपयुक्त थे |
सन् १७३३ में आपने यूरोप-यात्रा की | वहाँ पर आप अपने
पुराने परिचितों से मिले, अनेक स्थानों को देखा और कई विद्वानों से
प्रत्यक्ष परिचय किया। वहाँ से छौटने के पश्चात् आपका स्वास्थ्य
गिरने लगा। समर ३४ की गर्मियाँ आपने शिमले में बिताई । वहाँ
से कटनी पहुँचने पर कुछ जीर्णज्वर रहने लगा) भर भी उपसर्ग
बढ़े, तब चिकित्सा के लिये नागपुर और वहाँ से बबई ले जाए गए कितु
न लो रोग का ठीक ठीक निदान हे। सका और न चिकित्सा ही । वहीं
२० अगस्त को भ्राव ३ बजे आपका शरीर्रत है गया। शअतिम
( १० )
संस्कार के लिये आपका शव कटनी लाया गया; क््येंकि जन्मस्थान से
आपकी बहुत प्रेम था ।
डाक्टर साहब का जीवन-चरित लिखने के लिये बहुत स्थान
चाहिए, यहाँ ते उनके जीवन की कुछ घटनाशओ्रों का उल्लेख मात्र कर
दिया गया है, जिससे पाठकों के चरितनायक की जीवनी के संबंध में
कुछ आभास सिल्ल जाय | इस जीवनी के लिखने में 'हैहय च्षत्रिय-
मित्र! के हीरालाल अंक से बहुत सहायता मिली है ।
ध्ल शद्देश का इलिहाल
प्रथम झध्याय
मध्य प्रदेश
सध्य प्रदेश भारतवर्ष के बीद्ॉबीच का वह विभाग है जिसका
अ्रंगरेजों ने सन् १८६१ इसवी में एक प्रधक् प्रदेश चना दिया। उसके
पूर्व इसका उत्तरीय भाग प्राचीन पश्चिमोत्तर प्रदेश
( वर्तमान सयुक्त प्रदेश ) में सम्मिलित था और
दक्षिण अर्थात् नागपुर की भोर का भाग देशी रजवाडा था। अभ्रकस्मात्
सन् १८५७ ईसयी में सिपाह्दी विद्रोह की झाग भडऊी | उमके शांत
होने पर भारतवर्ष के विभागों का राजनीतिऊ दृष्टि से पुन शोध किया
गया उच यद्द स्थिर किया गया कि देश के सुप्रवथ और शांति के लिये
मध्य भारत में एक प्रदेश वनाना चाहिए | इधर नागपुर का राज्य सन्
१८५४३ ६७ ही में श्रैंगरेजों की देसरेस में भ्रा चुका था और जो प्रधिकार
भोंसला घर ले फए प्राप्त थे वे सन् १८५७ में, भापा साहब भोंसले फेरे
बिगड़ छठय पर, छोन लिए गए जिसमे पँगरेजों का उस राज के शासन
नवीन प्रदेश
२् सध्य प्रदेश का उतितास
फा प्रबंध भी अनिवार्य ही गया। सागपुर फा राम इसना विस्वी्श
झौर छॉंगरेजी प्रॉर्तों से इनमी दर भा कि बहद्द फिसी प्रदेश में
जाड़ा नही जा सकता घा। इसलिये भी शक क्ात्षग प्रदेश रचने को
आवश्यकता हुई |
उत्तरीय भाग सध्य प्रदेश को रचना के ऐसे सागर थे नरगंदा
प्रांत फलाता घा। बह 5 जिलों में विभक्तः धरा प्रणव सागर,
शा दसाह, जबलपुर मरसिद्पुर, हार्शगासाद, बैलूल,
लिंडवाशा, सियनी प्रार मंएला। द्धिती मार
के भी उतने ही जिले ब्रनाए गए चधात नागपुर, वर्धा, चाँदा, भंठारा,
वालाघाट, गायपुर, विलामपुर, संबलपुर और झपर गोदावरी |
इस प्रकार (८ जिलों के समृह फा एक नर्थान प्रात स्थापित किया
गया। पोंदे से कुछ ऋदल-बंदल की गई जिसको कारण ट्यरोच देशी
रजवाद़ं से जो भूमि प्राप्त हुई इससे एक झार जिला निमाढ़ जुड़ गया
कर अपर गोदावरी का जिला तोंद दिया गया। उसका कुछ भाग
रायपुर जिले में भार कुछ चाँदा लिले में मिलता दिया गया। सन्
१८६०६ ४८ सें संचलपुर फा जिला उड़ोला में मित्रा दिया गया भर
दोधकाय रायपुर थार विवासपुर जिखों का पुनः बटवारा फरफे तीन
विभाग किए गए जिससे दुग जिले की नप्तीन स्थापना हुई । सन् १८०३
३० में बरार प्रांत के चार जिले प्रमरावती, ध्रकाला, यवतमाल और
बुलढाना मध्य प्रदेश में घम्मिलिन किए गए निसके कारण झअच इस प्रदेश
सें २२ जिले हो गए हैं। इनक सिवा छोटठे-बड़े १५ रजवाड़े हैं जा
इसी प्रदेश के प्लतगंत रखे गए हैं। पहले वे पृथक पृथक जिलों में
विभक्त थे; यथा बस्तर अपर गोदावरों जिले का भाग समझता जाता
घा। उस जिले क॑ दूटने पर बद् रायपुर जिल्ले में जेड़ दिया गया था।
रायपुर में बस्तर फे सिवा कॉँकेर, नाँदगाँव, खेरागढ़ झार छुड्खदान
के रजवाड़े शामिल्ष थे। कवर्धा, सकती, रायगढ़ श्रौर सारंगढ़ विलास-
पुर से संबंध रखते थे। मकड़ाई होशंगाबाद जिले के अंतर्गत था।
शेष कालाहांडी, पटना, सोनपुर, रेढ़राखोल श्रौर बामड़ा संवलपुर जिले
प्रथम अध्याय डर
में सम्मिलित थे। थे, सबलपुर जिला समेत, उडिया दाने के कारण
उड़ीसा में लगा दिए गए हैं। इन पाँच रजवाडों के बदले छुटिया
नागपुर के ५ हिंदी रजवाडे अर्थात् सिरगुजाः, उदयपुर, जशपुर, कोरिया
और चाँग भरवार इस प्रदेश में जोड दिए गए हैं। इन १४ रजवाडों
की देस-रेख के लिये एक पोलिटिकल एजेंट नियुक्त कर दिया यया है।
मध्य प्रदेश का कुल क्षेत्रफल १,३१,०५२ वर्गमील है। वह पाँच
फमिश्नरियो में विभक्त है अ्र्धात् (१ ) नागपुर कमिश्नरी जिसमें
नागपुर, वर्धा, चाँदा, भडारा भार बाल्लाघाट के
जिले हैं। (२) छत्तीसगढ फमिश्नरी जिसमें
रायपुर, बिज्ञासपुर और छुरगे के जिले वा
मकडाई फो झोड़कर सब रजवाढे सम्मिलित हैं। (३) जबलपुर कमिश्नरी
जिसमें जबलपुर, सागर, दमेह, सिवनी धैौर मडला के जिले शामिल
हैं। (9, नरबदा! कमिश्नरी जिसमें द्वेशगावाद, नरसि्टपुर, निमाड,
छिंदवाडा भर बैतूल फे जिले शामिल हैं भैर ( ५ ) बरार कमिश्नरी
जिसमें अ्रमरावती, भकोाला, यवतमाल शऔर घुलढाभा के जिले लगते
हैं। प्राचीन फाल में ये विभाग एथकू प्रथक् देशों के झ्रग थे । इसमें
सदेट नहीं कि किसी समय मध्यदेश नामक एक भ्रति था परतु बह
वत्तेमान मध्य प्रदेश की सीमा से मिलान नहीं साता। वह यमुना
और नरंदा के वीचोंबीच था।
प्रागैतिहासिक काल में मध्य प्रदेश का बहुत सा भाग दडकारण्य
कहक्लाता घा । इस जगल का पूर्वी भाग महाकाशल या दक्तिण
कोशल कददलाता था | इसमें ग्राय समरत छत्तीसगढ़ कमिश्नरी श्रीर
सागपुर फमिश्नरी का कुछ भाग आ जाता है। दैहयें का अधिकार
फैलने पर मदहाफाशल का बहुत सा भाग चेदि देश फे भ्रतर्यत हो गया।
वरततमान और प्राचीन
श््ग
१--भ्रत्र परबदा कमिश्नरी तोड़ दी गई है। दमोद्ध जिला हुटठ कर सागर
पी तइसील कर दिया गया है और नरसिद॒पुर तेइकर देशगायाद की तहसील |
मस्वद। कमिश्नरी के चै[ुल और छिदयाडा जिले तो नागपुर कमिश्नरी मे और
निमाड़ तथा देशगायाद जयलपुर कमिरनरी में मिला दिए, गए हैं ।--स ७
छु मध्य प्रदेश का इतिहास
हैहयें का मूल स्थान महिंपसंडल ओर डाहल में था। महिपमंडल की
राजधानी माहिष्मती निमाड़ जिले के वर्चमान मांधाता में थी शरर
डाहइल की जबलपुर जिले के अंतर्गत त्रिपुरी ( वत्तमान तेवर ) में ।
सहिषमंडल में वतैमान औरंगाबाद जिला व दक्षिण मालवा सम्मिलित
थे। डाहल का विस्तार उत्तर-दक्षिण यमुना और नर्मदा के वीचोचीच
था। बरार प्राचीन विदर्भ है जिसके अतर्गत भोजकट का प्रांत था।
बस्तर का राज्य चक्रकूट या अ्रमरकूट कहलाता था। इनारा किनारों
पर अनूप, अ्रबंति, दशा, गौड़, ओड़, कल्िंग आदि लगे हुए थे जिनके
कुछ टुकड़े वत्तमान मध्य प्रदेश में सम्मिलित हो गए हैं। काल्लांतर में
इन नामों का परिवतन दै। गया जिसके कारण विदर्भ बरार कहतलाने
लगा, अनूप और अवंतिका का नाम मालवा पड़ गया, महाकाशल को
छत्तीसगढ़ की उपाधि मिल्ली, चेदि के एक भाग का नाम कुछ काल तक
जेजाकभुक्ति या जकीती रहा फिर वह बु'देलखंड कहलाने लगा |
चेदि का दूसरा भाग भट्टविल् या भट्टदेश और पश्चात् वधेलखंड के नास
से प्रख्यात हा गया। ओड़ उत्कल्त या उड़ोसा कहलाने लगा, गौड़
के पूर्वीय भाग का नास बंगाल चल निकला और पश्चिमी भाग के अनेक
विभागों के मिन्न भिन्न नास रख लिए गए। इन विविध देशों के प्रथक्
प्थक् शासनकर्त्ता थे, इसी कारण इस मध्य प्रदेश में, एक ही काल में,
अनेक राजाओं का राज रहा जिनका वणेन आगे किया जायगा।
द्वितीय अध्याय
प्रागेतिहासिक कांल
भूमि की बहुत प्राचीन दशा का पता भूगर्भ-विद्या से लगता है।
पत्थर और चट्टान ही उसके सुझ्य चारण हैं जे उसकी महिमा और
आयु का उच्चारण करते हैं। इनकी गवाही से जान पड़ता है कि कई
हजार वर्ष पूर्व सध्य प्रदेश के बहुत से भाग में समुद्र लहराता था।
द्विंचीय अध्याय घर
उसके पश्चात् उसने कडी भूमि का वेष घारण किया और वनस्प-
तिये। के उगने का अवसर दिया, पश्चात् प्राणियों का आविर्भाव
हुआ। इन सब में मानुपी उपज सबसे पोछे की समझो जाती
है। सब से प्राचीन मानवी सृष्टि का क्या नाम था, यह ते
अरब विदित नहीं है परतु ज्ञो अब जगली जातियाँ कही जाती हैं वे सबसे
प्राचीन लोगों की सतति हैं। मध्य प्रदेश में फाई ४४ प्रकार की जगली
जातियाँ पाई जाती हैं। इसमें से कई एक निस्सदेह शआर्यो के झाने के
पूर्व यहाँ पर विद्यमान थी। इन सब जातियो में गोंडों फी सझ्या
सब से अधिक दै। गोंड जाति को जनसझ्या कोई २२ लाख है।
ऐसा फोई जिता यथा रजवाडा नहीं जहाँ पर ये न पाए जाते हों।
किसी किसी जगह तो इनकी सख्या सैक्रडा पोछे साठ से भी अधिक
पडती है, जैमे उत्तर में मडला जिले में श्रार दक्षिण में बस्तर रियासत
में। कह्ठी कहीं पर पचास वर्ष पूर्व ये लोग बिलकुल नग्न अवस्था में
विचरते थे। ये अपनी भाषा में अपनी जाति को फोयतूर कहते है
जिसका भ्रर्थ द्वाता है सनुष्य ॥ इससे यह निष्फर्प निरुलता थे कि ये
लोग अपने को अन्य जानवरों से बिलगानेवाले शब्द का उपयेग करते
थे। पशुओं झोौर इनकी स्थिति से बडा भारी अतर नहों था। जान
पडता है, इसी फारण जब शआर्यो से सपर्क हुआ तब उस सभ्य जाति
ने इन प्रसभ्ये का पशु समान समममर धृषासूचक गोंड की उपाधि
लगा दी जिसका यथाथे अधे ढोर ( पशु ) दावा है। किसी किसी
ने इन लोगों या इनके पन्य भाडइयों फो बदर भालू राक्षस इत्यादि की
उपमा दे डाली, जिनका समावेश रामायथ समान बडे मद्दर्व के अरधों
में भी दे गया।
इस प्रदेश के मूल निवासियो का जे घेडा-बटहुत वर्णन मिलता
हैं बह रामायण ही में पाया जाता है। उस समय इस प्रदेश फो
दडफारण्य कहते थे। विध्य पर्चद फे उत्तर फो
ओर श्रार्यो की बस्तियाँ तो श्रवश्य घों, परतु
उसके दक्षिण में जगली लोग शी रहा फरते थे। प्रार्यों ने पझाधिपत्य
दढ्तारणएय
६ मध्य प्रदेश का इतिहास
प्राप्त करने के पूथे ही इस भूमि को इच्वाकुबंशियों की मान लिया और वे
उसमें घुसने का प्रयत्न करने लगे । उन्होंने मूल निवासियों का सत्ता
आरंभ किया। वे उनके यज्ञों में बाधा डालने लगे और कई एकों का
मार सारकर संसार के उस पार कर दिया।
जब कोशल्न के राम दंडकारण्य में आए तब उन्हें कई स्थलों पर
ऋषि-मुनियों की हड्डियों के ढेर दिखलाए गए। उन्होंने दंडकारण्य
का अपने राज्य के अंतर्गत समभकर उपद्रवियों
का सारना आरंभ किया। बालिवध का निश्चय
करते समय उन्होंने स्पष्ट रूप से कहा था “यह वन-कानन-शालिनी
सशैल भूमि इच्वाकुवंशवालों के अधिकार में है। भरत उस वंश
के राजा हैं ओर हम उनके श्राज्ञानुसार पावियों को दंड देने के लिये
नियुक्त हैं। जिन्हें दंड देना है उनके संग ज्षत्रियों के समान सम्मुख
होकर युद्ध करने की कोई आवश्यकता नहीं है??।१* जब उनके राजा रावण
ने सुना तो उसने भी रास के साथ उपद्रव किया ओर वह उन्तकी स्री
सीता को हर ले गया। यथपि सहस्नरों वष व्यतीत हो जाने के कारण
बहुतेरे गोंड यह नहीं जानते कि रावण कौन था परंतु वे अभी तक अपने
को रावणवंशी बतलाते ही चलते जाते हैं। कोई चार सौ वर्ष पूर्व जब
इस प्रदेश में गोंडों का आधिपत्य हो गया ओर ब्राह्मणों ने समय देख
गोंड़ राजाओं को प्रसन्न करने के हेतु राजबरानों की श्रत्नग पंक्ति बना-
कर उन्हें जनेझऊ पहनाकर ज्षत्रिय वण की व्यवस्था कर दी तब भी
उन्होंने अपने वंश को नहीं सेठा और अपने सिक्कों पर वे अपने नाम के
आगे पोलस्त्यवंश अंकित करते ही रहे। कई विद्वानों का मत है कि
लंका नमेदा के उद्गम-स्थान अमरकंटक में थी जे पहल्ते मध्य प्रदेश के
भीतर था परंतु पीछे से रीवॉ के महाराजा को दे दिया गया। यदि
पूर्ण शाघ होने पर यह सत्य निकले ते उसके आसपास के निवासी गोंड़ों
का अपने का रावणवंशों कहना साथेक और अत्यंत उपयुक्त ठहरेगा ।
राम
१--रामायणी कथा पछू० छ२ |
द्वितीय भ्रध्याय ७
लका चाहे जहाँ रही दो, रामायण से यह तो प्रत्यक्ष है कि राम
ने अपने वनवास का अधिक समय दडकारण्य प्र्थात् इस प्रदेश में
मर्य बिताया भर नर्मदा के दक्षिण के अनेक स्थलों में
न अमण किया। उसी काल में नमेदा के उत्तरीय
अ्रचक्ष में सहस्नाजुन कात्तंवीय मद्दिषमडल का राज्य करता था जिसकी
राजघानों माहिष्मती थी। साहिष्मती नर्मदा फे किनारे पर थी इसलिये
कुछ लोग उसे मडला और छुछ महेश्वर समभते रहे परतु अ्रव निश्चित
रूप से सिद्ध कर दिया गया दे कि वह निमाड जिले फे माधाता फे सिवा
अन्य नहीं है। कात्तंवीय रावण का समकालीन घा। इन दोनों में
मुठभेड भी हा। जाया फरती थी। एक बार कात्तवीर्य ने रावण को
पकड़कर अपने मद्द्त के खूँट में बद कर रफ्ता था। वह चद्रवशी
राजा था, उसी से ऐहयों की उत्पत्ति हुई जिनकी एक शाखा त्रिपुरी में
जा बसी। उस वश फे दृपतियों से भ्रपना आधिपत्य इतना बढाया
कि वे भारतवर्ष के सम्नाद् दो गए। यह ऐतिदाासिक फाल की वार्ता
है जिसका ब्यौरेवार व्ेन यथासर्थान किया जायगा |
यह प्रदेश राम, फा्वीर्य श॥यलौर रावण दी की लीलाभूमि नहीं
रहा वरन अगले युग में श्रीकृष्ण से भी इसका घनिष्ठ सबध है। गया ।
वत्तमान बरार प्राचीन फाल्न में बिदर्भ कहन्ाता
था, जिसका राजा भीष्मक था। इसी की
कन्या रुक्मिणी थो जिसका विवाह श्रीकृष्ण से हुआ। भीष्मक की
राजधानी फौंडिन्यपुर थी ! वद्द अमरावती जिले में इसी नाम से प्रभी
तक विधमान है। उस समय चेदि देश का राजा शिशुपाल बड़ा
शक्तिशाली घा भर रुक्मिणों फा विवाह उसी से होनेवाला धा परत
श्रीकृष्ण ने विन्न डाल दिया। इसी के कारण दोनें में विराध हुआ घोर
अत में शिशुपाल को प्राशों से हाथ धोना पडा |
इस देश में जे सबसे बड़ा भारी युद्ध हुआ वष्ट कोरवों कार
पांडर्वों के बोच फः दे जिसका वर्णन मद्दाभारत में किया गया है। इस
युद्ध में भारतवपे फे सभी राजा सम्मिलित हुए घे। ज्ञान पडता है
भ्रीकृष्ण
प् सध्य प्रदेश का इतिहास
कि सध्य प्रदेश की भूमि के तत्कान्नीन अधिकारी राजा कौरवों की आर
से ओर छुछ पांडवों की ओर से लड़े थे। श्रोकृष्ण ने अपनी सेना
कौरवों के दे दी थी और आप पांडब्ों की ओर
से खड़े हुए थे। शोध लगाने से ज्ञान पड़ता है
कि यह घटना कोई पाँच हजार वर्ष पूर्व हुई। एक जैन-मंदिर में, जो
शक संवत् ५४६ में वना था, लिखा हुआ पाया जाता है कि उस समय
भारत युद्ध का हुए ३७३५ वर्ष व्यतीत है। चुके थे। शक संवत् ईसवी
सन् के 5८ वर्ष पश्चात्त प्रचलित हुआ था इसलिये सन् १४२७ में
बजे
गणना करये से महाभारत की तिधि ४०२८ साल बैठती है। पचांगों में
कलियुग की जे। संख्या दी जावी है वह इससे मेल खाती है। इससे यह
भी सिद्ध होता ह॑ कि कलियुग संवत् का आरंभ तभी से हुआ | इतने
प्राचीन कात् के चिह्न इस देश में नहीं मिलते । परंतु पंज्ञाव के हड़प्पा
श्रार सिंध के मेोहनजेदरो में खादने से ऐसी छुछ वस्तुए मिली हैं
जे इतनी ही पुरानी जान पड़ती हैं। विशेष जाँच होने पर कदाचिन् ये
उस जमाने की सभ्यता के प्रत्यक्ष प्रमाण समभ्के जायें ओर ऐतिहासिक
काल का क्षेत्र अधिक विस्तीर्ण हो जाय।
महाभारत
तृतीय खष्याय
योय काल
भारतवर्ष का ऐतिहासिक काल कोई ढाई हजार वर्षो" से आरंभ
होता है। डस समय मगध देश के राजा विशेष प्रतापशाली थे । ये
शिशुनाग-वंशी कहलाते थे क्योंकि इस वंश कें
प्रथम राजा का नाम शिश्ुनाग धा । इस वंश के
दस राज़ात्रों ने कोई ढाई सौं वष तक राज्य किया । दसवे' राजा
महानंद के एक शूद्रा ली से नंद नाम का लड़का पैदा हुआ जिसने
असल शेशवनागें का निकाल कर अपना अधिकार जमा लिया । नंद
शिशुनाग व नंदवंशी
ठूतीय अध्याय च्ड
के वंश में सो वर्ष तक राज्य स्थिर रहा। यह चश भी बडा ससद्धि-
शांली था। नद का पुत्र महापद्म एकराट् एकच्छन्न कहस्तावा था
परतु अ्रमी तक कोई प्रमाण ऐसा नहीं मिल्ला जिससे यट्ट सिद्ध दा कि
शिशुनाग या नदवशियों का अधिकार मध्य प्रदेश के किसी भाग में था
या यहाँ के स्थानीय राजा उनका आधिपत्य सानते थे |
जब नद॒वश का पतन प्रसिद्ध चाणक्य ब्राह्मण फी नीति द्वारा हुआ
तब मौयबशी चद्रगुप्त राजा सिहासन पर पझारूुढ हुआ। बौद्ध ग्रथों के
अनुसार चद्रगुप्त शाक्यवशी गोतम बुद्ध का वशज था। उसका पिता
हिमालय पर्वत फे ऊपर एक छोटे से राज्य का अधिकारी था। उसके
राज्य से मोर बहुत थे इसलिये उसके वश का
नाम सौर्य कहलाया। कोई कोई कहते हैं कि
उस राजा की राजधानी मेरिय नगर में थी इसलिये वश का नाम भौये
चह निकला। पश्रन्य कहते हैं कि चद्रगुप्त नदवशों अ्रतिम राजा
सहानद की मुरा नामऋ नाइन दासी के पेट का लडका था इसलिये
मार्य कहलाया परतु स्पष्टत यह युक्तियुक्त नहीं जान पडता, क्योंकि इतना
बडा प्रतापां राजा अपने वश का नाम हीनतासूचक क्यों चलने देता।
यह फेवल ईर्ष्या का फल है, क्योंकि इस वश ने बौद्ध घर्म का विशेष
समन किया। पढाडी राजयुवक चद्रगुप्त के सिकदर की भारत पर
चढ़ाई और अपने देश को लौटते समय उसकी मृत्यु ने ऐसा असग
उपस्थित किया जिसके कारण बह भारतवर्ष का एक महाप्रतापी राजा
हो गया। सिकदर ने जिन गाजाओं फो हरा दिया था उनका सतताप
कैसे हो सकता था ९ वे और उनकी प्रजा सभी विदेशी शासन से मुक्त
होना चाहते थे | श्रवसर मिलने पर बलवा दवा गया। चढ्रगुप्त बलवाइयों
का भुख्िया बन बैठा । पञ्ञाव फी सीमा पर रहनेवाली लडाकू ज्ञातियों
से मेल कर उसने एक बडी भारी सेना प्रस्तुत की और यूनानी दल से
लडाई लेऊर और उसे हराकर पञ्ञाव पर अपना स्वत्व ज्ञमा लिया।
उस समय सगघ देश बडा समृद्धिशाल्री धा। चद्रगुप्त ने अपनी दृष्टि
उस ओर फेरी श्लौर चाणक्य की सहायता से पड़्यन्न रचकर महानद
कय
मीयंवश
१० मध्य प्रदेश का इतिहास
का मरवा डाल्ला ओर आप गद्दी पर वेठ गया। अब उसकी सेना और
भी बढ़ गई। उसके पास छः लाख पेदल, तीस सहस्त सवार, नौ
सहस्र हाथी और बहुत से रथ थे। इस चतुरंगिणी सेना का सामना
कौन कर सकता था १ उसने शीघ्र ही उत्तरीय रजवाड़ों को सर कर
डाला और करनाटक तक नहीं ते नर्मदा के तीर तक का प्रांत अपने
अधीन अवश्य कर लिया। भारत में चंद्रगुप्त ही पहला ऐतिहासिक
चक्रवर्ता राजा है जिसने बंगाल की खाड़ी ओर शप्रव समुद्र के मध्यस्थ
संपूर्ण देश का अकंटक राज्य किया। उसी प्रांत के अंतर्गत इस प्रदेश के
सागर, दमोह आदि जिले भी थे। जिस समय चंद्रगुप्त ने यूनानियां का
हराया उस समय वह केवल पश्चोस वर्ष का थधा। उसने १८ वर्ष के
भीतर पूरो रूप से अपना साम्राज्य स्थापित कर लिया और बड़ी योग्यता
के साथ शासन किया, जिसकी प्रशंसा आज तक होती है। उसने
विष्णुगुप्त चाणक्य का अपना मंत्री बनाया था। उसकी सहायता से
ही चंद्रगुप्त का मगध का लिंहासन प्राप्त हुआ था। इसके अतिरिक्त
वह राजनीति में अत्यंत निपुणा था |
चाणक्य ने अपना जो अथेशासत्र लिखा है, उसमें तत्कालीन
राज्य-शासन-विधि का व्यौरेवार वर्णन किया है। ऐतिहासिक दृष्टि
से यह बड़े महत्त्व की पुस्तक है। इससे ज्ञात होता
है कि सन् ईसवी से तीन चार सो वर्ष पूर्व की
सभ्यता उच्च श्रेणी की थी। अधेशाश्र में राजा-प्रजा सब के कतंव्य
का वर्गन है। राजा १९५या १६ सभासदों की सम्मति से राज्य-कार्य
चलाता था। राज्य-शासन के १८ विभाग रहते थे। उनके प्रबंध के
लिये अलग अलग अधिकारी नियुक्त रहते थे। कई विभाग प्रजा के
विशेष हिताथ खेले गए थे, जैसे खेती की सिंचाई के ल्षिये जलाशय-
निर्माण, व्यापार के लिये जल्ल व थल मार्ग, वाजार व भोदामें, औद्यो गिक-
कार्यालय, सड़क, घाट, पुत्र, पीड़ितों के लिये सैषज्यग्रह, ओपषधि और
वनस्पति-उद्यान, श्रनाथ अशक्तों के लिये दीनालय, पशुओं के लिये
जंतु-ग्रद्द इत्यादि |
अथशाज्र
ठृतीय अध्याय ११
यूनान देश को ओर से चद्रगुप्त के दरवार में सेगेस्थनीज नामक
दूत रहता धा। यह विदेशो जे। लेस छोड गया है उससे ज्ञात होता
है कि चद्रगुप्त के राज्य में कृषि भूमि के अधिकांश भाग को पानी दिया
जाता घा, और इस काम का यथोचिव रोति से चलाने के लिये कई
अध्यक्ष नियुक्त थे । फोई नदियों को देख रेस करता था, फाई भूमि की
साप और फोई नहरों की चोऊसी रखता था। श्रथे-शालत्र के आरविर्भाव
से ये सब बाते अब पुष्ट हो गई हैं। इतना ही नहीं, उनके काम करने
को रोति व्योरेवार प्रकढ दवा गई है, जैसे कृषि सिचन के विपय में लिखा
है कि पानी चार प्रकार से दिया जाता था,--हस्तप्रावतिम अर्थात्
द्वाथ के द्वारा, स्फधप्रावत्तिम अर्थात् कघे पर ढोकर, स्रोतयत्न-प्रावर्तिम
श्र्धात् कल के द्वारा और नदी-सर-तटाक-कूपे।द्घाट-द्वारा | फन्रिम
नहरें भी बनी हुई थों जिनका कुल्या कहते थे। जल वर्षा जानने के
लिये वर्णमान कुड बने थे, जे इस समय 'रेनगेज? फहलाते हैं । घातुझों
के निकालने के लिये खानि विभाग अलग था। जल झौर थज्ष दोनों
से बहुमूल्य धातु या पत्थर, दवीरे इत्यादि निकालने का प्रवघ राजा फी
ओर से होता था। कच्ची घातुएँ सिक्राकर जब पकी कर लो जाती था,
तब वे विशेष अध्यक्षों के अधीन कर दी जाती था, जैसे सोने का कारबार
सोवर्णाष्यक्त के भ्रधीन फर दिया जाता था, लेदे और इतर घातुझों फा
कार्य लोदाष्यक्ष के अधोन रहता था । इन घातुश्ों से श्रल्ञ श्र बनवाने के
लिये अलग अधिकारी नियुक्त था, जिसे आयुधाध्यक्ष करते थे । सारांश
यह है कि प्रत्येक काये के लिये व्योरेघार काम का बेंटवारा इस प्रकार कर
दिया गया था जिससे प्रत्येक विभाग मी यथेचित वृद्धि होती जाती थी |
यद्यपि चाणक्य प्रणाली के चिद्द भव श्रवगव नहों हैँ तथापि जान पढ़ता
है कि उसका प्रचार अवश्य रद्दा दहोगा। इतना तो निस्सदेह फद्दा जा
सकता है फि मौर्यों के पोछे जे। राजा हुए, उनके दरबार में भी कई
बैसे हो पदाधिकारी थे, जिनका वर्णन अध-शासत्र में है। इससे यही
सिद्ध द्वाता है कि उन राजाओं ने पूर्व प्रथा के समयेतचित परिवर्तन फे
साथ स्थिर रा |
५२ मध्य प्रदेश का इतिहास
चंद्रगुप्त के पश्चांत् उसका लड़का बिंदुसार सिंहासन पर बैठा
जिसने कोई पद्चीस वर्ष राज्य किया । उसने अपने राज्य की सीमा
दक्षिण की ओर अधिक बढ़ाई। जब उसका लड़का अशोक सन् ईसंवी
के २७२ व पूर्व गद्दी पर बैठा, तब राज्य की सीमा सद्रास के पास तक
पहुँच गई थी । बड़ीसा की ओर के प्रांत कलिंग का भी, जे। अब तक
बचा हुआ था, अशोक ने जीव लिया। कल्तिंग देश महानदी और
गेादावरी के बीच बंगाल की खाड़ी के किनारे का प्रदेश था, जिसमें
कुछ भाग छत्तोसगढ़ का आ जाता है। इससे यह सिद्ध होता है कि
अशोक ने मध्य प्रदेश के पूर्वीय भाग को स्वयं जीता | अ्रभिषेक होने के
पूर्ठ इस प्रदेश के पश्चिमी भाग से उसका घनिए्ठ संबंध हो गया था
क्योंकि वह बहुत समय तक उज्जैन का सूबेदार रहा था। यहीं पर
उसने एक वैश्यकुसारी से विवाह कर लिया था जे। सॉंची के निकट
रहती थी। साँची का विशाल स्तूप भ्रशोक ही ने बनवाया था। इस
हाप्रतापी सम्रादू के राज्य में बौद्धवर्म की अत्यंत वृद्धि हुई। प्रायः
संपूर्ण भारत ही बौद्ध धर्मावलंवी नहीं वन गया, वरन् अन्य देशों में भी
उसका प्रचुर प्रचार छुआ । वह क्या भिक्तु, क्या ग्रृहस्थ, सबको उत्ते-
जना देता था कि उद्योग करे, परिश्रम करे, तुमका अवश्य सिद्धि प्राप्त
होंगी; ऊँचे से ऊँचा स्थान तुम पा सकाोगे। इस प्रकार के आदेश
उसने अनेक शित्षाओं और स्तंभों पर खुदवा दिए थे और अपने कर्म-
चारियों का उपदेश करने की आज्ञा दी थी। इसी प्रकार का लेख
जबलपुर जिले के रूपनाथ की चट्टान पर खुदा हुआ है। भेड़ाघाठ और
उसके निकटस्थ त्रिपुरी ( तेवर ) के आसपास भी कई बौद्ध मृत्तियाँ
मिली हैं, जिन पर उस धर्म का बीज मंत्र खुदा हुआ है। ये मूत्तियाँ
अशेक के समय के लगभग एक सहस््र वर्ष पीछे की हैं। इससे स्पष्ट
जान पड़ता है कि बाद्ध घ्मं का पाया किस इृढ़ता के साथ जमाया गया
था। त्रिपुरी कट्टर शैवों की राजघानी थी। उसकी सीमा के भीवर
वैद्धबसे का प्रचार बना रहना कुछ कम आश्चये की बात नहीं है ।
केवल जवलपुर जिले में ही नहीं, बरन मध्य प्रदेश के चारों कोनों मे बैद्ध-
छत्तीय अध्याय १३
धर्स का प्रचार है। गया था, यहाँ तक कि चाँदा जिले की भद्राबती या
भद्रपत्तन ( वर्समान भाँदक ) के भी क्षत्रिय राजा वैद्ध हो गए थे।
कदाचित् मध्य प्रदेश में भद्रावती से वडी नगरी किसी जमाने में भी नहीं
रही । जिस समय सातवीं शत्ताब्दी में चीनी यात्री युवान च्वग भारत
में भ्रमण करने का झ्राया था, उस समय वह भाँदक भी गया था।
उसके वर्दां पर सा सघाराम मिले थे जिनमे दस सहसत्र वैद्ध भिन्नु
रहते थे, परतु कराल काल ने इन सबका कवलित कर लिया। इतने
पर भी वहाँ झ्ब तक अनेक भग्नावशेप विद्यमान हैं। चट्टान काटकर
बनाया हुआ एक बिहार अ्रव भी मौजूद ऐ जिममें बुद्ध की तीन सू्तियाँ
हैं। वहाँपर एक शिक्षालेस मिला है जिसमें वहाँ फे बाद्ध राजा
सूर्यधोष के द्वारा बोद्ध मदिर घनवाए जाने का पर्णन है। इस राजा
का पुत्र महल के शिक्षर पर से गिरकर सर गया था। उसी फी लिये
बह स्मारक बनवाया गया था। सूर्यघेप के पश्चात् उदयन राजा
हुआ। उसके पश्चातू भवदेच हुआ, जिससे छुगत फे इस मदिर का
जीर्योद्धार कराया ।
इसी प्रफार रायपुर जिले के तुरतुरिया नामक स्थान में बौद्ध
भिच्चुगियों का विहार था। वहां पर बुद्धदेव की विशाल मूर्ति अभी
लक विद्यमान है। बोद्ध धर्म मिट जाने पर भी इस स्थान पर अभी तक
स्षियाँ ही पुजारिन दादी दँ। सिरशुजा रजवाडे में, जिसका पूर्वनाम
भारखड घा, रामगढ नागक पवेत है। वहाँ बौद्ध नाटकशाला और
गुफाएँ हैं जिनमें पाली शक्तरें में लेख खुदे हैं मैर रगोन चित्र खिंचे
हैं। उसी लिपि में, सकती रजवाडे के दसैदहरा नासक प्राकृतिक
कुड में भी लेस दै। दोशगाबाद जिले को पचमढी की मढियाँ, बरार
के भ्रतर्गत पातुर की गुफाएँ आदि भध्य प्रदेश में बौद्धवर्म के प्रचुर प्रचार
के साक्षी है। बरार में थे सुप्रसिद्ध नागाजुन ने जन्म ग्रहदद्य किया था
जिसने बौद्धधर्म के माध्यमिक सप्रदाय की जड जमाई थी। बह कुछ
दिन रामटेक की एक गुफा में दिका था, जिसके कारण उसका नाम
नागाजुन गुफा? पड गया है। यद्द विस्तार अशोक के परिश्रम फा
१७ भध्य प्रदेश का इतिहास
फल ससभक्तना चाहिए। अशोक प्रत्येक प्रकार के कष्ट सहने का उद्यत
रहता था, वह सम्राद् ही नहीं वरन् सित्षु भी था। 'धम्सपद! में लिखा
है कि हाथलंयम, पादलंयम, वाकूसंयम से उत्तम संयमी, आत्मदर्शी,
समाधिस्थित, एकचारी, संतेाषी पुरुष का ही मिचुक कहते हैं।
अशेक के समय मैये-प्रताप शिखर पर पहुँच गया। उसकी
सत्यु होते ही अवनति ने अपना पाया जमाया। अंत में मैर्यो' के ही
सेनापति पुष्यमिन्र ने धोखा दिया और अतिस राजा का मारकर वह
आप गद्दी पर बैठ गया। इस प्रकार यह प्रदेश सन् इसवी से १८५
वष पूर्व तक मैर्यो' के अधीन रहकर शु'भों के हाथ चला गया।
चतुर्थ अध्याय
विद्रोह-काल
शु'ग बंश का प्रथम राजा पुष्यमित्र ही था। लाटायन ओत
सूत्र में लिखा है कि शुगाचाये किसी विश्वामित्र गोत्रवाले त्राह्मण का
नियोगज पुत्र ध। | उसी के वंशज शु'ग कहलाए।
मार्यो' से ज्राह्मण खार खाते थे, क्योंकि उन्होंने
ब्राह्मण धर्म को हटाकर बोद्ध धर्म का प्रचार कर दिया था। प्रभावशाली
मैर्यो" के सासने किसी की दाल गल नहीं पाई, परंतु जब अधिकार
एक निवेल राजा इहद्रथ के हाथ में आया तब ब्राह्मणों ने सेना का
अधिपति एक सबत्त त्राह्मय का पा उसे उकसाकर अपना अभीष्ट सिद्ध
किया । जब वह स्वामिधात करके राजा बन गया तब उसे अपने
हिसायतियों को प्रसन्न करने के लिये बोद्धों का तंग करना पड़ा |
उसने कई बौद्ध भिच्चुओं का मरवा डाला, विहारों में आग लगवा दी
और अनेक प्रकार की पीड़ाएँ पहुँचाई' जिसके कारण बहुत से मिच्ु
उसका राज्य छोड़कर अन्यज्न चले -गए। पुष्यमित्र ने अश्वमेध यज्ञ
रचा और पुन: हिंसामयी पूजा का प्रारंभ कर दिया जिसकी जड़
अशोक ने काठ दीथी। पुष्यमिन्र ने अपने युवराज अग्निमिन्न को
मिलसा-निकटस्थ बेसनगर में सूवेदार वनाकर भेज दिया था। इसने
शुग
चतुधे अध्याय श्ष्
बरार फे राजा से लडाई ठानी और अपना अ्रधिक्तार वर्षा नदी तक
स्थिर कर लिया। कालिदास ने इसी झग्निमिन्न को अपने मालविकारिन-
मित्र नाटक फा नायक बनाया है। पुष्यमित्र से कलिग के जैन राजा
सारवेल की एक बार ठन गई। जब खारवेल ने हरा दिया तब उसे
मथुरा की ओर भागना पडा। शुगों का राज ११२ वृष तक चला।
पुष्यमिन्र के मरने पर उसके वशजों में शीघ्रता से परिवर्तन द्ोता गया,
जिससे जान पडता है कि कुछ गडबड अवश्य हुई हागी। निदान इस
वश का प्रतिम राजा देवभूति अपने ब्राह्मण सन्नी वासुदेव के हाथ मारा
गया। हत्या करने के पश्चात् वह सिहासन पर बैठ गया परतु पैंवा-
लीस ही वर्ष के भीतर उसके वश का नाश हो गया | इस वश का नास
काण्वायन था । यह प्रकरण सन् इसबी से २८ वर्ष पूर्व पूरा दो गया ।
प्रसगवश सारबेल का नाम अभी लिया जा चुमा है, वह कलिग
देश का राजा था। बता चुके हैं कि श्रशोक ने बड़ा भारी युद्ध ठान-
कर फलिग देश ( वर्तमान उडीसा ) को बडे
परिश्रम से जीवा था। अशोक फी रूत्यु होते ही
बहाँ मौ्यों का अधिकार दूसरों के हाथ चला गया। इन्होंने भी
अपने राज्य की सीमा बढाने के लिये छुछ उठा नहों रसा। इनमें पार-
बेल बडा प्रतापी निकला। उसके समय में भारतवर्ण में कोई ऐसा
नगर नहीं था जे उसकी सेना को देसकर या नाम सुनकर कफाँप न
उठता हो । सम् ईमसवी के १६० चर्ष पूर्व की बात है। जाम पडता है,
स्री व मूपिऊदेश वर्तमान वरार या उसके आसपास के देश थे। बरार
में पुष्यमित्र अपना अधिफार जमाए हुए था। कदाचित् इन दोनो में
मुठभेड हे जाने का एक यह भी कारण दे।। वैसे तो सारवेल जैन था,
इसलिये पुष्यमित्र खार खाता रहा द्वोगा, क्योंकि जैने से ्राह्मणों की
कभी पटठती ही नही थी । खारवेल़ के उत्तराधिकारियो का इतिहास
ज्ञात नहों है, परतु जान पडता है कि अरंध्रश्ृवत्यों के उदय से जैन और
शु ग दाने को द्वानि पहुँचो। रायपुर जिले के आरग स्थान में एक
प्राचीन बश के राज्य का पता चलता है जिसे राजर्पितुस्यकुल कद्दते थे ।
खारबेल
१६ मंध्य प्रदेश का इतिहास
यदि इसका संबंध खारवेजल् से रहा है| तो समकना चाहिए कि खारबवेल
का वंश सैकड़ों वर्ष चला। परंतु शुप्तों के आविभाव तक मध्य प्रदेश
के दक्षिणीय भाग फे राजत्व का पूरा पूरा पता नहीं चलता ।
शक जातीय विदेशियों के बहुत से सिक्के मिल्ते हैं, जिनमें एक
ओर यावनी भाषा सें विरुद और मास लिखे हैं और दूसरी ओर उसी का
अनुवाद संस्कृत में है। यदि ये भारतवर्षीय प्रजा के लिये न बनाए गए
होते तो संस्कृत-अनुवाद की काई आवश्यकता न थी। इस प्रकार का
सब से पुराना सिक्का भूसक नासी राजा का है जिसका समय सन
ईसवी की प्रथम शताब्दि का मध्य स्थिर किया गया है। जबलपुर के
अंतर्गत भेड़ाघाट में कुछ प्राचीन मूतियाँ मिली हैं। उनमें लिखा है
कि भूसक की पुत्री ने उनकी स्थापना की थी। इससे अनुमान होता है
कि भूसक का राज्य इस ओर रहा होगा। भूसमक के पश्चात् नहपाय
का पता लगता है जे। सन् €9 इसवी के लगभग राज्य करता था। ये
लेग क्षहरादू कहलाते थे। इन लोगों का तिलंगाने के अंप्रश्नत्यों ने
सन् १२४ ई० के लगभग हटा दिया। आआंध्रों का अधिकार उत्तर की
ओर बहुत दिन तक नहों ठहरा। क्योंकि उब्जेन के राजा महात्नन्नप
रुद्रदामन् ने अपने दामाद आंध्राजा पुलुमायी से लड़ाई ठानकर ज्ञहराटों
से पाए हुए देश का बहुत सा भाग छीन लिया। यह प्रायः १५० ईंसवी
की बात है। इसके ७५ वष पश्चात् आँध्रों का अस्त ही हो गया |
रुद्रदामन् भी विदेशी था। इसके पितामह चष्टन ने सन् $० ८० के
लगभग मालवे को अधोन कर उज्जैन में अ्रपत्ती राजधानी जमाई थी।
ये महाज्षत्रप जज्जैच में कई पीढ़ियों तक राज्य करते रहे । इनकी गद्दी
पर बैठने की प्रथा विचित्र ही थी । राजा की झुत्यु के पश्चात् उसके
भाई अपने वयक्रम के अनुसार गद्दी के अधिकारी होते थे। सब भाइयों
के हा चुकने पर बड़े भाई के लड़के को गद्दी मिलती थी। सन् ३०४
३० तक इन महाक्षत्रपों का सिलसिला बराबर चलता रहा | फिर जान
पड़ता है, कुषाणवंशी कनिष्क ने इन लोगों का मालवे से हटाकर अपना
अ्रधिकार जमा लिया। कुषाणवंशी भी तुर्की विदेशों थे, परंतु उनमें
चतु्धे अध्याय १७
कई शिव उपासक दे गए थे। फनिष्क बौद्ध दा गया था, परतु उसके
पूर्वज वेम फकड़फाइसेस के सिक्कों में 'सहाराजस राजधिराजस सर्वे
लेग--इस्वरस महिस्वरस हिमकथपिससत्रदतः लिसा मिलता है श्र
उसमें नदी पमार त्रिशुल-सद्दित शिव की मूर्ति भी रहती ऐ। इससे स्पष्ट
है कि वह माहेश्वर अर्थात् शिव-उपासक था। क्ुपाणवश में कनिष्क ही
सब से बडा प्रतापो राजा हुआ, परतु मालवे में इस वेश का राज्य
झधिक नहीं ठदरा । चतुर्थ शताब्दी के प्रथम चरण ही में गुप्ततश का
उदय हुमा, जिसने विदेशियों का समूल उसाड फर फेंक दिया।
अरध्रश्ृत्य वही हैं जिनके तिलगे कहते है। ये गोदावरी रौर
कृष्णा फे बोच की भूमि फे निवासी हैं। इनकी राजधानी कृष्णा के
तट पर श्रीकाकुलम में थी। जिस प्रकार उत्तर में
भौये प्रतापो राजा हो गए हैं उस्री प्रकार दक्षिण में
इन झाप्नों फा जोर धा। इनके पास एक लाख पैदल सिपाही, दो
सहस्त सवार और एक सहस्त दाधियों की सेना थी | ये लोग पद्दले
बिलकुल स्वतंत्र थे, परतु मौर्यों ने इनको सन् ६० फे २५६ वर्ष पूर्व
अपने अधीन फर लिया घा। कितु भ्रशोक के पश्चातू दक्षिण फे राश्यों
से मौर्या का दबदबा बहुत कुछ उठ गया। शअ्राँघ्रों ने तो श्रवसर पाकर
झपने राष्य की सीमा नासिम्र तक बंढा ली, जिससे प्राय नर्मदा फे
दक्षिण फा सारा प्रांत इन द्वाविडों के हाथ में चला गया । पहले परलेस
दे चुका दे कि शाँप्रों ने कहरादों को हटाकर उज्जैन पर भी अपना
अधिकार जमा लिया घा। इस वश में गौतमी-पुत्र श्री शातकर्यी बडा
प्रवापो राजा हुआ । उसी फे समय अ्रांप्रराज को विशेष वृद्धि हुई।
उसका पुज राजा वाशिष्टीपुन्न श्री पुलुमायी घा। यह सन् १३५ ६० में गद्दो
पर बैठा । इसका विवाद उज्जैन के क्षत्रप रुद्रदामन् फी लडऊी से हुश्ना
था, तिस पर भी सप्तुर ने दामाद से लड़ाई लेने झार उसके देश को
छोन लेने में कमी नहों को । यहां से प्राँध्री का अधिमार सकुचित हो
चल्ला, जिसकी इतिश्री सन् २२५ ६० में दो गई।
आध्रमृत्य
३
श्द मध्य प्रदेश का इतिहास
पंचस शष्याय
गुप्त वंश
मगध देश में वैभव-हीन छोटे मोटे राजा रह गए घे। उनमें से
एक का विवाह नेपाल के लिच्छवि-वंश में हो गया। इस राजा का
माम चंद्रगुप्तथा। लिच्छवि-वंश में संबंध होने के कारण उसका गौरव
बहुत बढ़ गया, क्योंकि वह वंश बहुत प्राचीन, प्रतापी और प्रभावशाली
था। किच्छवियों से उसे प्राचीन वैभवशाली राजधानी पाटलिपुत्र
प्राप्त हा गई। चब तो चंद्रगुप्त ने अवसर पा अपना सहत्त्व इतना बढ़ाया
कि शोघ्र ही उसने महाराजाधिराज का विरुद धारण कर लिया और
गुप्त नामक संवत्सर का प्रचार सन् ३२० ई० सें कर दिया |
चंद्रगुप्त का लड़का समुद्रयुप्त हुआ, जिसने चंद्रगुप्त मौये की नाई
अपने राज्य की सीमा तिल्लंगाने तक फैलामे का उद्योग किया और
अनेक राजाओं को परास्त कर उन्हें सांडलिक बना दिया। जब वह
दिग्विजय का निकला, तो सागर जिले ही से होकर दक्षिण को
गया। जान पड़ता है कि सागर उसे बहुत प्रिय लगा, क्योंकि उसने
बीना नदी के किनारे एरन सें 'स्वभोग-नगर” रचा। उसके खंडहर अब
तक विद्यमान हैं। एरन में एक शिज्ञालेख मित्रा है। उसी में इस
बात का उल्लेख पाया ज्ञाता है। यह पत्थर विष्णु के मंदिर में ल्ग-
वाया गया था। समुद्रगुप्त के दिग्विजय की प्रशस्ति इलाहाबाद की
लाट में खुदी है, जिसमें अनेक जातियों और राजाओं के नाम लिखे हैं,
जिन्हें जीवकर उसने अपने वश में कर लिया अथवा उनका विध्व॑ंस कर
डाला था। उसमें से एक ज्ञाति खपेरिक है जे। दमोह या उसके
अ्रासपास के जिल्लों में अवश्य रहती रही होगी। उस जिले के बटिहा-
गढ़ नामक स्थान में चेदहवों शताब्दी का एक शिलालेख मिल्ला है
जिसमें खपर सेना का उल्लेख है। ये प्राचीन खपरिक से भिन्न नहीं
दे सकते। जान पड़ता है, बड़े लड़ाकू होने के कारण इसको सैनिक
बनाकर रखना मुसत्लसानों तक के अभीष्ट था, इसी कारण महमूद
पंचम अध्याय श्ड
सुलतान की भ्रोर से इन लोगों फी सेना बटिहांगढ में रहती थी । पीछे
से लड़ाई पेशाबाली जातियें की जे! गति हुई वही इनकी भी हुई) अब
इन लोगों की एक श्रलग ज्ञाति खपरिया नाम को दे गई ऐ जो बु'देल-
खड में विशेष पाई जाती दै। इस जाति के लोग 'वसुदेवाः की
नाई प्व भैंसे सैसें का व्यापार फरते हैं। समुद्रगुप्त से महा-
कोशल? श्र्थात् छत्तीसगढ़ के राजा महेंद्र से लडाई ली और उसे इरा
दिया | इसी प्रकार मद्दाआंतार के राजा व्याप्रदेव का भी हराया। यह
कदाचित् बस्तर का कोई भाग रहा होगा जहाँ पर इस समय भी बड़ा
भारी जगल है! इलाहाबाद की प्रशरिव में भ्राटविक (जगलो) राज्यों
के जीवने का भी जिक्र है। जान पडता है कि बहुत प्राचीन फाल से
अष्टादश अटवी राज्य भर्थात् अ्रठारद्द बनशाज प्रसिद्ध थे। ये बहुत
से वर्चमान सध्यभारत फे रजवाडडों में से थे। इनमें से निदान दे। परि-
ब्राजफ वे उच्च करप फे महाराज गुप्तों के मडलैश्वर दवा गए थे। इन
देने राजवशों के कई शिला व ताप्न लेख मिले हैं जिनमें गुप्त सबतू
का उपयोग किया गया है। इनसे पता छगता है कि परिव्राजकों का
आदि पुरा देवात्य था ।* उसका ल्डका प्रभजन कार उसका दामे-
दर हुआ। दामेदर का पुत्र दरितिन प्रवापी हुआ | वह ४३५ ई० में
विद्यगन था। उसका लडफा सक्षोम हुआ | इसका एक तापम्रश्तसन
मिला हद जिसकी तिथि ५१८ ई० में पडती है।
१--जान पड़ता है, इस देश से 'मह्दा? शब्द का विशेष मद्टत््व था | देश का
नाम मद्दाकोशल, राजा का नाम महेंद्र, सससे बड़े जगल का नाम मह्यकातार, समसे
बडी नदी का नाम मद्दानदी, संब्रमे बड़े पर्वत का नाम महेंद्रगिरि, सबसे बड़े
तालाब का नाप्त मद्दासमुद्र और लिरपुर के सेमवशी पाडव राजाश्ों की राजकीय
उपाधि भद्दाशिवगुप्त अथवा मद्ामरगुप्त | '्विरस्थायी बादरी विजेताओं वा
भी श्रपने नामे! म रिना “महा! जड़े कदाचित् काम पहीं चलता था। शरमपुरोय
राजाओं के नाम भी मशझाजपराज और मद्दासुदेवराज पाए जाते हैं।
२--देखो पांगरीप्रचारिणी पत्रिका वप ४३, पृष्ठ ४०१।
२० सध्य प्रदेश का इतिहास
इनके पड़ोसी उच्चऋरप के महाराजा थे जो उचहरा में राज्य
करते थे। उच्चक्रप का ही अपभ्रश उचहरा जान पड़ता है।
इनकी वशावली ओघदेव से आरंभ होती है जिसका विवाह कुमारदेवी
से हुआ था। इनका पुत्र कुमारदेव हुआ जिसने जयस्वामिनी से
विवाह किया। उनका पुत्र जयस्वामिन् हुआ। इसने रामदेवी से
विवाह किया। उसका पुत्र व्याप्र हुआ जिसने अज्कितादेवी को
पटरानी बनाया। इनका पुत्र जयनाथ हुआ्ला जिसके कई ताम्रशासन
मिले हैं। इनमें संवत् अंकित हैं। जयनाथ सन् ४२२ ई में विद्यमान
था। उसका लड़का सर्वनाथ हुआ जिसका राज्यकाल् ४७४१ ई०
के लगभग पड़ता है । इसके पश्चात् उसने अश्वमेध यज्ञ किया था,
जो पुष्यमित्र के समय से बीच में कभी नहों हुआ था। सैयवंश में
चंद्रगुप्व का पोता अशोक और गुप्तवंश में चंद्रगुप्त का लड़का समुद्र-
गुप्त दोनों समान तेजस्वी निकल्ले। समुद्रगुप्त भारतीय नेपोलियन
कहलाता है। यद्यपि कोई कोई उसे सिकंदर को उपमा देते हैं जिससे
यह अर्थ निकलता है कि उसकी विजय चिरस्थायी नहीं थी। निदान
यह ते मानना पड़ेगा कि दिग्विजय में वह अद्वितीय हो गया, उसी
प्रकार धर्मप्रचार में अशेक से बढ़कर दूसरा नहीं निकला । समुद्रग॒ुप्त
केवल वीर ही नहीं था; वरन् वह योद्धा, कवि ओऔर उच्च श्रेणी का
गायक भी था ।
समुद्रगुप्त का देहांत ३७५ ६० के लगभग हुआ । तब उसका
लड़का द्वितीय चंद्रगुप्त सिंहासव पर बैठा । इसके समय में प्रजा बड़ी
सुखी थी। यह चंद्रगुप्त विक्रमादित्य कहल्लाता
था, श्र कहा जाता है कि भारत के देशी राजाओं
में कोई ऐसा नहीं हुआ जिसका शासन इसके शासन से बढ़कर
रहा दा। इसकी पुष्टि चीनी-यात्री फाहियान के समान विद्वान
विदेशी भी करते हैं। प्रजावर्ग में अरतुलित शांति और समृद्धि
थी। इसके शिलालेख भिल्लसा के पास उदयगिरि और साँची मे
विचमान हैं |
विक्रमादित्य
पंचम अध्याय रे
समुद्रगुप्त की झुत्यु के पश्चात् उसका लडका कुमारगुप्त राजा
हुआ । इसने अपने पितामह के समान भम्वमेध यज्ञ किया, परतु मध्य
एशिया के हूणों ने आक्रमण करना आरभ किया
और गुप्त राज्य को बलहीन कर दिया । छुमार-
गुप्त के भरते ही स्कदगुप्त फे राज्यकाल में हथों फे लगातार हमले होने
लगे। इस प्रवाह फो पह रोक न सका। निदान हय उसके राज्य
के भीतर घुस आ्राए। स्कदयुप्त की मृत्यु के चार ही वर्ष पश्चात हों
का राजा तेरमाणय (ठुरमामशाह) छरन में श्रा गया | उस समय एरन
का प्रांत स्कदगुप्त फे भाई बदों के हाथ में बुधगुप्त राजा फे अघोन था,
परतु वह रवय यहाँ का राजकाज नहां देखता भालता था) उसकी भोर
से सुरश्मिचद्र नामक माडलिऋ यमुना भार नमदा-मष्यस्थ प्रांत का शासन
करता था । एरन में सुरश्मिचद्र की ओर से मैत्रायणीय शाखा के ब्राह्मण
मातठृविष्णु श्र धन्यविषएु१ राज्य चलाते थे। इन्हीं के समय में तेरमाण
ने सन् ४८७ ६० में अपना आधिपत्य जमा लिया घा। एरन फे बराह
फे वक्त स्थल में इसका उल्तेस श्रभी तक वियमान है, परतु हणों का
राज्य इस श्रेर स्थायी नहों हुआ। गुप्तों का विष्वस हूणों ने श्रवश्य
कर डाला, परतु राज्य किसी भार के अधिकार में चला गया।
सध्य भारत मे यशोधम्मेन् नाम का एक प्रतापी राजा हुआ,
जिसने मगध के राजा से मैत्रों करफे सन् ५२८ ६० में हथों फेो! निकाल
बाहर किया। यशोघरम्मंन फा आधिपत्य इस
प्रदेश में भ्रवश्य ही हा गया हागा, जघ उसके
इतिहासकार लिखते हैं कि उसका गज्य हिमालय से ब्रावणकौर के महेंद्र-
गिरि तक फैल गया था। यशोधर्म्मंन् का राज्य बहुत दिनों तक नहीं
चला। छठी शवाब्दी ही में उसका अत दे गया |
अमी तक दस नमेंदा के उत्तरो ओर क॑ राज्यों फा वर्णन करते
आए हैं, प्रव उसके दक्षिण की ओर दृष्टिपात करना झरावश्यक जान पडता
हूण-आक्रमण
यशोघमन्
१--इन्दीं का एक सपधी दयितप्रिषुणु बंगाल म जाकर पालप्शोय राजाओं
का अरधिष्ठाता दे गया |
श्र मध्य प्रदेश का इतिहास
है। दक्षिण में सहाफाशल और विदर्भ दे बड़े देश थे जिनसें प्रति-
भाशाली राजवंश है। गए हैं। ये एक दूसरे से त्ञगे हुए थे। पूर्व की
ओर महाकाशल का विस्तार था श्रौर पश्चिम की
ओर विदर्भस था। जान पड़ता है कि इनकी सीमा
चाँदा जिले के निकट मिली हुई थी । महाकाशल की प्राचीन राजधानी
भद्रावती ( वत्तेमान भाँदक ) चाँदा जिले में थी। खारवेल के पूर्व
महाकाशल में किसका राज्य था, इसका पता नहीं च्षता। अलन्ञमान
से मौर्यो' का आधिपत्य सान लिया जा सकता है। बौद्धध्वंलावशेष
इसकी गवाही भी देते हैं। पहले बता आए हैं कि चौथी शताब्दी में
हाराज समुद्रगुप्त ने महाकाशल को जीत लिया था | “उस समय वह
महेंद्र नाम का राजा था, परंतु उसके उत्तराधिकारी कौन हुए, इसका
कुछ भी पता नहीं लगता। रायपुर जिले के आरंग नामक ग्राम में
एक राजषितुल्य कुल के राजा का ताम्रशासन मिला है। उसकी तिथि
सन् ६०१ ईसवी में पड़ती है। उस समय महाराज भीमसेन द्वितीय का
राज्य था। उसके पिता का नाम दयितवम्मेन् द्वितीय, उसके पिता
का विभीषण, उसके पिता का दथयित प्रथम और उसके पिता का शूर
नाम था। कदाचित् ये महेंद्र के वंशज रहे हां । परंतु उदयगिरि के
पाली लेख में खारवेल का 'राजधिवंशकुलविनि.सृव”ः लिखा है। यदि
राजर्पितुल्यकुल और राजर्षिवंशकुल एक ही हें ते यह बात सिद्ध हो।
जाती है कि खारवेल के वंश का राज्य महाकफाशल्त में सातवीं सदी तक
स्थिर रहा आया। कल्तिंग में चाहे उनकी पद्धति उखड़ गई हो परंतु
दंडकवन में उनके वंशजें का अधिकार बना रहना काई आश्चये की बात
नहीं है। राजपिंतुल्य कुलवाले कोई भो रहे हों, उनके ताम्रशासन से यह
बात ते सिद्ध है कि महाकाशल के मध्यस्थान रायपुर में सौ वष से
अधिक समय तक उनका राज्य बना रहा। यद्यपि भीमससेन के
महाराज? लिखा है, परंतु इनकी विरुदावल्ली ऐसी नहीं जान पड़ती कि
ये स्वतंत्र या चक्रवर्ती राजा रहे हों। कदाचित् ये भद्रावती के बौद्ध
राजाओं के मांडलिक रहे हों। जिस समय चीनी यात्री युवानच्व॑ंग
राजपिंतुल्थ॒कुल
पंचम पध्यार्य रई
महाकाशल फी राजघानी में सन् ६३६६० म॑ झाया था, उस समय वह
का राजा चत्रिय परतु बोद्ध धर्मावलबी था । ये राजा भद्गावतो में कब
से राष्य फरते थे, इसका कहीं प्रमाण नहीं मिलता, यदि सपूर्ण महा-
फोशल उनके अधिकार में रहा दा, ते। आरग फे राजा अवश्य उनके
मडलिऊ रहे होंगे। मध्य प्रदेश में बांद्ध धर्म बहुत दिनों तक बना रहा,
परतु श्रत में भद्रावती के बौद्ध राजा शैव हो गए घर उन्होंने अपनी प्राची न
राजधानी को स्थानांतरित कर रायपुर जिले में महानदी के किनारे ओरोपुर
( वतेमान सिरपुर ) में जमाया। ये अपने का सेोमबशी पांव कहते
थे। इनके वशजों फे नामों फे शत में बहुघा "गुप्त शब्द रहने से
इतिहासकार इनको पिछले गुप्त! कहने लगे हैं, परतु इनसे चार पदना
के आदियुप्तों से कोई सबंध नहों था।
सेमबशो पॉडवों का पता उदयन तक लगता है, जे प्राचीन
राजधानी भाँदक में राज्य करता था। उसका लडऊ़ा इ द्रवल्न, उसका
नन्देव, उसका मद्दाशियगुप्त तीम्रदेव, उसका
भतीजा हर्षशुप्त और उसका लड़का महाशिवगुप्त
बालाशुन हुआ । किस राजा के समय में श्रीपुर में राजघानी स्थापित
फी गई इसका कहों लेख नहीं है, परतु जान पडता है कि तोमरेव फी
राजधानी वहा पर थोी। बाल्लाजुन के समय तक इस बश का प्रताप
बढता गया पझौर मद्दाकाशल्ष में प्रत्येक्त प्रकार की वृद्धि द्वेतो गई।
ताम्रशासनें फी भाषा से जान पड़ता है कि इन राजाओं की सभाझों में
अत्यत सुशिक्षित और धुरंधर पडित रहा करते थे । रागज्यशाश्षन की
प्रयाल्ली भी अच्छी थी, परतु जे चढता है वह गिरता है। एक दिन
बह आया कि सोमवशियों का यथामाम तथागुणवाली राजधानी
श्रीपुर का छोडऋर, विनीत हा, पिनीतपुर का झ्ाश्रय लेना पडा | शरम-
पुर-बशोय उनके स्थानापन्न हुए। इस वश के दे ही राज्ञाओं फा नाम
झक्ञात है, श्र्धात् महासुदेवराज और महाजयराज| इनके पश्चातू
ताप्तशासनों में न वशावज्ञी दी गई है और न फोई विशेष घिरुद पाया
जाता है। इनकी मोहरे में यद श्नोफ पाया जाता है--'प्रसन्नहदय-
सोमवशी पाइव
२४ मध्य प्रदेश का इतिहास
स्येव विक्रमाक्रांतविद्विष:। श्रीमत्सुदेवराजस्य शासनम् रिपुशासनम ॥?
इन्होंने जो गाँव प्रदान किए हैं वे रायपुर और विज्ञासपुर जिलों के
बोचेंबीच पड़ते हैं। ये शासन शरभपुर से लिखे गए थे, जिसका
ठीक ठीक पता अभी तक नहीं लगा। किसी किसी के श्रतुसार यह
शरभवरम है जे गादावरी के उस पार स्थित है। शरभपुरीय राजा
बहुत दिनों तक नहीं टिके। उनके हाथ से राज्य दूसरों के हाथ में
बहुत जल्दी चत्ला गया। परंतु वह सेोमवंशो पांडवों के अधिकार में
लौठ कर नहीं गया।
सेमवंशियां की नवीन राजधानी विनोतपुर अब बिनका नाम से
प्रसिद्ध है। यह सेनपुर रजवाड़े में महानदी के तठ पर, श्रीपुर
से सीधी लकीर में जाने से, सो मील पड़ेगी।
त्रिकलिगाधिपति ९
नदी द्वारा नाव पर काई जाय ते १८० मील
पड़ेगी । जान पड़ता है कि महाशिवगुप्त «वालाजुन के पश्चात् औपुर
विपत्तिग्रत हुआ। उसका उत्तराधिकारी महाभवगशुप्त उपाधिघारी
राजा वहाँ से भागकर विनीतपुर में जा बखा। इसके हाथ में
सहाकाशलत का पूर्वीय भाग फिर भी बच रहा था, जिसके बढ़ाने
का उद्योग इसके वंशजों ने अवश्य किया और क्रमश: उड़ीसा और
तिलंगाने के जीतकर त्रिकलिंगाधिपति का विरुद धारण कर लिया।
जान पड़ता है कि महाभवशुप्त जनमेजय से पहले पहल यह पदवी
धारण की। उसके ताम्रशासनों में उसका पूर्ण विरुद यों पाया जाता
है-.“परमभट्टारक सहाराजाधिराज परमेश्वर श्री शिवगुप्तदेव पादानु-
ध्यात परममाहेश्वर परमभट्टांरक महाराजाधिराज परमेश्वर सोमकुल-
तिलक त्रिकलिंगाघिपति श्री महाभवगुप्त राजदेव:॥” मनन करने से
जान पड़ेगा कि सहाभवगुप्त के पिता शिवगुप्त के नाम के आगे न ते
'सहाःशब्द है न त्रिकलिंगाधिपतिः!। महाभवगुप्त जनमेजय सिरपुर से
निकाले हुए महाभवगुप्त का पोता जान पड़ता है। उसका लड़का
शिवगुप्त हीन दशा में उत्पन्न हुआ, तब महा-अहा सब भूल गया; परंतु
उसके लड़के ने जरिकलिंग के जीतकर प्राचीन प्रतिष्ठा पुनः प्राप्त कर ली
पष्ठ अध्याये श्प्
और वशपरपरा को नाम पूर्ण रूप से पुन घारण कर लिया। सिरपुर
वश में राजाओं के दे ही नाम चलते थे, भ्र्धात् महाशिवगुप्त और
महाभवगुप्त। बाप यदि शिवगुप्त हुआ ते! लड़का भवगुप्त होता घा।
प्रत्येक के जन्म-नाम व्यक्तिगत होते थे, परतु गदी पर बैठवे ही राजकीय
नाम घारण करना पडता था । इस प्रकार तीवरदेव महाशिवगुप्त के
नाम से प्रसिद्ध था। उसका उत्तराधिजरारी उसका भतीजञा हृपगुप्त
हुआ, जिसका राजकीय नाम महामवगुप्त रहा, दवेगा। हर्षगुप्त के
लडके का नाम महाशिवगुप्त बालाजुन लेखों में मिलवा है। इसका
ल्डका महाभवगुप्त रहा होगा, पर उसके कोई ताम्रशासन नहीं मिले ।
वह वेचारा स्वय विपत्ति में था, फिर ताम्रशासन-द्वारा दान देने की उसे
कहाँ से सूफती । उसके लडके ने महाशिवगुप्त के बदलते अ्रपना नाम
केवल शिवगुप्त रसा । इस शिवगुप्त का लड़का जनमेजय हुआ, जिसकी
चर्चा ऊपर हा चुरी है। जनमेजय का लडझा महाभषगुप्त ययाति
हुआ, जिसने विनोतपुर का नाम बदल कर ययातिनगर कर दिया।
उसका लड़ा महाभवशुप्त मीमरथ हुआ, जिसके पश्चात् सेमवशियों का
पता नहीं लगता | प्रत्यक्षत उनका राज्य दूसरों फे हाथ में चला गया।
चए्ठ श्रध्याय
चि 0
विदभे
हम श्भी तक सध्य प्रदेश के, विशेषफर उत्तरीय भाग फे,
राजाओं का घणेन करते आए हैं। श्रव नर्मदा के दक्तिए फे राजाओं
की कुछ चर्चा फरने का समय आा गया |
पुराणों में विदर्भ ( वर्तमान वरार ) का बहुत अधिक उस्लेस
है। उनमे लिखा दै कि यदुवश में विदर्भ नाम का एक राजा हुप्ा था
जिसके नाम से देश का नाम विदर्भ चलने लगा, यद्यपि जान ते ऐसा
पडता है कि बरार में दर्म या कुश की ददीनता फे कारण देश का नाम
श्र मध्य प्रदेश का इतिहास'
विद ( दर्भविहीन ) रखा गया। विदर्भ से लगे हुए प्रांत का नाम,
जहाँ कुश की बहुलता थी, काशल रखा गया था। पौराणिक कथा के
अनुसार काशल का नाम भी रामचंद्र के पुत्र कुश राजा के नाम से
रखा बतलाया जाता है। स्मरण रहे कि यहाँ पर जिस काशल का
वर्णन हा। रहा है वह उत्तर काशल अर्थात् भ्रवध नहों है। वह दक्षिण
फोाशल या महाफीशल है जिसकी सीमा बरार से लगाकर डड़ोसा तक
थो। विद में यादवों का राज्य बहुत प्राचीन काल से घा। पुराणों
में सबसे बड़ी वंशावली इन्हीं की मित्नती है, परंतु ऐतिहासिक काल में
मैर्यो' से पू् का बृत्तांत अवगत नहीं है। मैयक्नाल के चिह् भी बरार
में बहुत कम हैं, परंतु इसमें बिलकुल संदेह नहीं हे कि अशोक का राज्य
विद में था। निजाम के राज्यांतगंव रायचुर जिले के मस्क्री नामक
प्राम में अ्रशोक्त का एक शित्षालेख मिला है जे रूपनाथ के लेख से
बहुत मिलान खाता है। जान पड़ता है कि विद में जे राजा पहले
राज्य करते थे, उनका अशोक ने निकाला नहीं था। वे उसके मांडलिक
हा गए थे, परंतु जब शुगों ने अपना अधिकार जमाया तब वे फिर
स्वतंत्र है गए। प्रथम शु'गराजा पुष्यमित्र के लड़के अग्निमित्न ने विदर्भ
के राजा से लड़ाई ली थी श्लौर उसका आधा राज्य उसके चचेरे भाई को
दिलवाया था जिनके बीच की सीमा वरदा ( वत्तमान वर्धा ) नदी बनाई
गई थी। मालविकाग्निमिन्न नाटक में जिस राजा की अग्निमित्र ने
हराया उसका नास यज्ञसेन लिखा है। कदाचित् यह अक्रांच्रवंशीय
राजा रहा हा, जिनको परिचय हम दे चुके हैं। कलिंग के जैन राजा
खारवेल ने पश्चिम के आंध्रवंशीय राजा ही का हराया था। तभी से
जान पड़ता है कि विदर्भ का संबंध आंध्रों से कुछ काल तक द्वूट गया |
बरार जेनियों के अधिकार में कब तक बना रहा इसका ठोक पता नहों
लगता, परंतु वह थोड़े दिनों में वाकाटकों के हाथ चल्ना गया |
अमरावती, छिंदवाड़ा, सिवनी और बालाघाट जिलों में वाका-
टक राजाओं के ताम्रशासन मिलते हैं। उनमें इस वंश का परिचय यों
दिया है---/विष्ण॒द्ृदूध समोन्नश्य श्रोमद्वाकाटकानां महाराज ओऔप्रवर-
पषष्ठ अध्याय र्७
सेनस्य” जिससे जान पडता है कि वाकाठऊ नाम की कोई जाति थी
जिसके विष्युवृद्ध गोन्न के नायक राजा थे। इनका आदिपुरुष
विध्यशक्ति था, जिसका पुत्र प्रवरसेन ( प्रथम )
बडा प्रतापी राजा जान पडता है। उसने अग्नि-
थ्ोम, भ्राप्तार्याम, उक्थ्य, पोडशिनु, आतिरात्र, वाजपेय, बृहस्पतिसव,
साथरक पार चार प्रश्वमेष यज्ञ किए थे। उसका लडऊरा गीातमी-
पुत्र था जिसका विवाद भारशिवों फे राजा भवनाग की कन्या से
हुआ था। इनका पुत्र रुद्रसेन ( प्रथम ) हुआ, उसका प्रथ्वीपेण, उसके
रुद्रसेन द्वितीय हुआ, जिसफोा मदहाराजाधिराज देवगुप्त की कन्या
प्रभावती गुप्ता ब्याही धो। इनका पुप्र प्रवरसेन ( द्वितीय ) हुआा
जिसने अमरावती जिले में चम्मक नामक प्राम की भूमि एक हजार
प्राह्ययों फा दान में बाँट दी थी। घम्मक इलचपुर से चार मील
है। ताम्नशासन से लिखा है कि चम्मक भोजकट राज्य में था,
जिससे यह भी पता छग जाता है कि इलचपुर का प्रात पहिते भीजकट
फहलाता था। प्रवरसेन द्वितीय का छडफा नरेंद्रसेन हुआ भौर उसका
पृथ्वीपेण द्वितीय | इनके पश्चात् देवसेन और दरिपेण राजा हुए।
फिर बश का लोप हा गया । इन लोगों ने अपना राज्य उत्तर में बुदेल-
सड तक पीला लिया घा। दक्षिण में गेदावरी तक, पश्चिम में श्रजदा
पर पूर्व में बालाघाट तक इनका आधिपत्य था। इनकी मुहरों में
निम्नलिखित श्लोक खुदा रहता घा--“वाकाटकललामस्य क्रमप्राप्त-
हुपश्रिय । राज्ष प्रवरसेनस्य शासन रिपुशासनम् |” जान पडता
है, इनकी राजधानी प्रवरपुर सें थी । इसका पता अमी तक नहीं लगा।
यदि प्रवरपुर का अपभ्र श पवरार या पवनार हो गया है| ते यह स्थान
वर्धा शद्दर से ६ सील पर धाम नदी फे किनारे का पैनार दे। समता
है। वहाँ कई पुरानो मूत्तियाँ भी निऊली हैं श्रौर दतकथा फे अनुसार
प्राचीन काल में वह बहुत प्रसिद्ध रद्दा है।
जिस समय ओऔपुर के सेमवशियों का अध पतन हुआ और
शरभधपुरीय राजा्ों ने अपना अमल र्थिर किया, दस समय जान पड़ता
बाकाटक
श्प्प मध्य प्रदेश का इतिहास
है महाकाशल का पश्चिमी भाग शैल्षवंशी राजाञों के हाथ जा पड़ा |
इस वंश का एक ही ताम्रशासन वाल्ाघाट जिले में मिला हैं। उसमें
लिखा है कि शैल्नवंश में सुरावद्धन नामक राजा
छुआ और उसका लड़का पृथुवद्धन हुआ, जिसने
गौब्जर देश ( गुजरात ) के जीत लिया। उसका लड़का सौंवद्धन
हुआ, जिसके तीन औरस पुत्र थे। उनमें से एक ने पौड़ ( बंगाल
व बिहार ) के राजा का सारकर उसका देश क्षे लिया। तीसरे
लड़के ने काशीश का मारकर काशी अपने स्वाधीन कर ज्ञी । उसका
लड़का जयवद्धन ( प्रथम ) हुआ, जिसने विंध्या के राजा को मारकर
विंध्या ही में अपना निवास स्थापित किया। उसका लड़का श्रीवरद्धन
हुआ और उसका पुत्र “परममाहेश्वर सकत्लविंध्याधिपति महाराजा-
घिराज परसेश्वर श्री जयवर्धनदेव” ( द्वितीय ) हुआ, जिसने बालाघाट
का खार्दा (९) नामक ग्राम रधोक्ली के सूर्य-मंदिर को भोगा्थ लगा
दिया। यह दान श्रीवद्धनपुर राजधानी से प्रदान हुआ घथा। इस
स्थान का पता अ्रभी तक नहीं लगा, परंतु जान पढ़ता है कि वह रामटेक
के निकट कहीं पर रहा होगा । रामटेक से तीन-चार मील पर नगर-
धन ( प्राचीन नंदिवद्धन ) नामक ग्रास है। संभव है कि प्रथम विंध्य-
नरेश श्रीवक्धन ले यहों पर अपने नाम पर राजधानी स्थापित की हो
और उसके पश्चातू किसी नंदिवद्धन नामक वंशज ने उसका नास पल्लट-
कर अपने तास पर राजधानी का नाम चलवा दिया हो | जे। हा, इतना
ते पक्का है कि बालाघाट और नागपुर की ओर का प्रांत शैल्वंशियों के
अधीन था। इस दंश के छृत्यों के वर्णन से जान पड़ता है कि वह ऐसा-
वैसा वंश नहीं था। उसने बड़े बड़े नरेशों के राज्य छीन लिए थे;
परंतु बीस वर्ष पूवे भारत के इतिहासकारों का उसका नाम तक नहीं
ज्ञात था |
अब सहाकाशल के पश्चिमी भाग से और थोड़ा पश्चिम को
चलकर जब हम विदर्भ पर दृष्टि डालते हैं,ते वाकाटक का नाटक
समाप्त और राष्ट्रकूटों का अभिनिवेश हग्गोचर होता है। ये राडार
शैलवंशी
पष्ठ अध्याय श्द
राजपूत थे। इनकी सुझय राजधानी मान्यखेट ( वतेम्नान मालसेड़ )
में थी। माह्खेड बरार फे दक्षिण में निजाम के राज्य में है। जान
पड़ता है कि अचलपुर ( बतमान इलचपुर ) में
शच्ट्रकूटों का प्रतिनिधि या सूबेदार रहता था और
वहाँ से वद् बरार, बैतूल, छिंदवाड़ा, वर्धा, चाँदा आदि पर शासन
करता था ) इन सब स्थानों में उनके लेस मिले हैं। चाँदा जिले
के भाँदक में जे तान्नतासन मिला वह प्रथम कृष्ण का ऐ, मिसकी
तिधि ७७२ ईसवी में पडती ऐं। वर्धा जिले की देवबली के लेख का
समय <५० इसवी है) इस काल्ल के बोच दक्तिण से चाह्नक्यों और
उत्तर से परमारों ते धावे किए, परतु वे ठहरे नही, इसलिये राठारों का
राज्य बहुत दिनो तक बना रहा ।
सातवां शताब्दी में थानेश्वर के राजा हर्षवर्धन के वैभव ने सभदत्त
दक्षिण में नर्मदा तक सारा देश उसके अधिकार में कर दिया | हर्ष बड़ा
कह प्रठापी राजा था। पैदल सिपाहियों के श्रतिरिक्त
उसके पास साठ सहस्न हाथी भार एक खास
सवारों की सेना थी। उसने झपने बाहुबल ही से अपना राज्य बढाया
और कन्नौज फे! अपनी राजघानी वबनाई। सम् ६०६ ६० में जब वह
गद्दी पर बैठा, तब से उसने अपने नाम पर हर्पसवतू चला दिया । वह
अहिसा का बडा पक्षपाती था। उसके समय में किसा भी जतु फे
मार डालने या मांस खाने के झपराघ में कठोर दड दिया जाता था।
हु श्रपने विस्तीर्ण राध्य की देखरेस स्वय दौरा फरके किया फरवा था।
उसके समय में बेगार से फराणए हुए फास के लिये मजदूरी दो जाती थी |
शिक्षा फी श्रेर उसका विशेष ध्यान था। जांन पड़ता है, वह
स्वय बहुत भ्रच्छा फवि हार नाटककार था ) उसके दरबार में असिद्ध
फवि बाय रहा करता था, जिसने अत्यत क्लिप्ट सस्कृत में 'हर्यचरितः
लिखकर अपनी अपूर्य शक्ति का परिचय दिया । दृप से नगरों घर देहावों
में सी अनेक घमेशालाएं बनवा दी थीं, शिनमें एफ एक वैध भी रहा
करता घा। जिसको झावश्यकता है। उस्फो बिना मूल्य प्रेषधि देना
राष्कूट
३० मध्य प्रदेश का हतिहास
वैध करा काम था। सागर हुप॑ के राज्य में सम्मिलित रहा होगा, परंतु
कदाचित् वैद्यों के सिवा उसके समय के कोई मी चिह अब विद्यमान
हीं हैं। सागर जिले में गाँव गाँव नहीं ते मुख्य मुझ्य गाँवों में
वैद्य मिल्ेंगे, जे बहुधा धर्माथ वैयक्न किया करते हैं। कदाचितू
यह प्रथा हर्ष के समय से ही चली हा । हप की झृत्यु सन् ६४६ ६०
में हुई। उसके संतान न होने से उसके मरते ही अराजकता-सी फैल
गई, और जिससे जहाँ वना वह वहाँ का राजा बन बैठा ।
सपम्रस्त अध्याय
कलचुरि
अब नर्मदा के उत्तरीय भाग में पुन; हौटकर हमें देखना चादिए
कि उस ओर हर्ष के बाद क्या हाल हुआ। उस जमाने का दो सी
एक वर्ष का इतिहास बहुत स्पष्ट नहीं है, परंतु
जबलपुर की ओर कलचुरियों ने अपना सिलसिला
जमाना आरंभ कर दिया था। इनके प्रबत्त प्रताप ने मध्यप्रदेशांतर्गंत
राज्य के ही नहीं, वरन् उसके चारों ओर के दूर दूर के राजाओं के श्रपने
अधीन कर लिया घा। डाक्टर कीलहाने के श्रनुमानानुसार इनकी
राजवानी त्रितसाये! में थी, जिसका कि अभी तक पता नहीं लगा।
१--यह अनुमान रलमपुर में मिले हुए एक कुछ टूटे शिलालेख पर से
किया गया है, जिसमें त्रितसीर्य का नाम दे श्लोकों में आया है। वे ये हैं--
तेषां हेहयभूसुजां समभवद्धंशे स चेदीश्वरः
श्री केकल्ल इति स्मरप्रतिकृतिविंश्वश्नमेदि। यतः |
येनाय॑ त्रितसाय॑ [ सैन्यबकमाया ] मेन माठुं यशः
स्वीय॑ प्रेपितमुच्चकैः कियदिति बन्रह्मांडमंतःक्षिति॥ ४॥
पापतेंष. कलिज्नलराजमसम॑ वशःक्रमादाजुजः
पुत्र शच्र॒कलचनेत्रसलिछस्फीत' प्तापहुम्म।
प्राचीन राजधानी
सप्तम अ्रध्याय ३१
कलबुरियों ने सर २४८ ईसवी में अपना नया सबतू चलाया घा, जे।
प्राय, एक सहस्त वे तक चलतवा रहा और जिसका उपयोग अन्य राजा
येनाय. चितसायेक्राशमछशोकत्त पिहायान्यय
छोणीं दक्षिणकाशले जनपदों चाहुढयेबाज्जित ॥६॥
ऊपर के पइले श्लोक में नितसौर्य के पश्चात् के ६ अछर दृढ् गए हैं
और जे| केक के भोतर दिए गए. हैं, वे केयल मैंने श्रमुमान से भर दिए हैं । यह
निश्चित नहीं है कि मूलश्लोक में उस स्थल पर कौन से अक्षर थे | डाकदर पील-
हार्म॑ ने पहले श्लोक का श्रर्थ ये किया ऐ--.इन देहय राजाश्ों के वश में
श्री केस्हल नामक चेदि का शासक हुआ, जे। कामदेव की मूर्ति ही था, मिसमे
पिश्य के अमेदद मिलता था और जिसके द्वारा पृथ्यी पर द्वार अपने निज्र यश के।
नापने के लिये, कि वह कितना ढागा, यह वितसौय ( का रइनेवाला ) अक्यारद में
ऊँचा भेजा गया [” मैं श्लोक के उत्तरार्द का जे। अर्थ लगाता हूँ, वह यह है--
/४(जिसने नितसौ्य की सेना था| उसकी विपुलता द्वारा अपने मिजी यश के। स्पष्ट
रूप से नापने के लिये, कि ब्क्माएड के बीच और प्रथ्यी पर कितना है, मेजा
(अर्थात् वितसौय के विपुल सैन्य को हराकर चारों आर अपना यश पैला दिया) ।
चेंदे। में चेदि और तृत्तुज्ञतिया का नाम आया है। तृस्यु लोगों का राजा दिवा
दास बड़ा परक्रमी था। उसने तुबबंस, द्ू ध्य और सबर के। मारा और गगु और
नहुप वशिये| के दराया । इसका पुत्र सुदास हुआ । वैदिक युद्धों म इसका युद्ध
सबसे बडा समझा जाता है। इसके तिपक्षी अनेक राजाओं ने मिलकर इसे
इराना चाहा, परतु उनका प्रयास निष्फल हुआ और वे सय् पराजित द्वाकर प््रपना
सा मुँदद लेश्र रद गए। विजयी तृस्मुजाति के लोगां के। दृराना उस समय जगत्
में यश वी सीमा समभी जाती रही द्वेगी | इसो बात की उपमा इस श्लोफ में
दो हुई जान पड़ती है और नितसौय का अथ तृत्तुजातीय जान पडता है, न कि
किसी स्थान का भाग । किदु दूमरे शलोऊ में कद्दा दे कि केकल्लदेव का वशज
कलिगराज तित्तसीय का फेश क्ीण न करने के अमिप्राय से अपने बान्ययों को सेना
के छोड दक्षियफरेशल के। चला गया। इससे पुन अनुमान के लिये जगद
मिल जाती दे कि जितसीय देदये की राजघानी थो, जहाँ के केश के। कम न करने
के हेतु राजा के भाई बधु जन्यत चले गए.
३२ मध्य प्रदेश का इतिहास
भी करते रहे। इसी से प्रक्नट हो जायगा कि ये ज्ञोग कितने प्रभाव-
शाली नृपति थे। कलचुरि, हैहयों की एक शाखा है, जिनका वर्णन
पुराणों में बहुत आता है। ताम्रलेख आदि में कलचुरियों का सबसे
प्राचीन उल्तेख सन् ५८० ६० में मिलता है, जव कि चुद्धराज राजा था |
उस समय जबलपुर की ओर गुप्तों के मांडलिक परितन्राजक महाराजाश्रों
का अमल घा। इससे स्पष्ट हे कि वुद्धराज ने मध्य प्रदेश सें कभी राज्य
नहीं किया । इस प्रदेश में कलचुरियों के आधिपत्य का समय प्राय:
प८छ५४ ई० से जान पड़ता है, परंतु विजयराघागढ़ के निकट उचहरा में
इनके मांडलिक रहते थे, जे उच्चकल्प के महाराजा कहलाते थे। इनके
कई लेख जबलपुर जिले में मिले हैं, जिनकी तिधियाँ सन् ४७५ और
५५४ ई० के वीचोंबरीच पड़ती हैं। इससे यही अनुमान किया जा
सकता है कि उचहरा राज्य के आसपास ही कहीं कलचुरियों की पुरानी
राजधानी रही हागो। यह प्रांत वर्तमान वधेलखंड में पड़ता है। रीचाँ
मेरी समझ में इस अथ से ते हेहवें की दरिद्रता दरसेगी, न कि प्रशंसा |
मेरी समझ में फिर भी त्रितसौय शत्रु जाति का वेधक है | कलिंगराज “ब्योणी? के
छे।ड़कर चले गए, जिससे शत्रुओं का खर्च कम हे गया । उनके रहने से लड़ाई
जारी रहती, जिससे जितसौय जाति का केश क्षौण दाता जाता। इससे उनकी
महानुभावता प्रकट होती है। चेदिवंश बड़ा उदार-चरित्र था। ऋग्वेद के
तऋराठवे' मंडल में एक उदाहरण भी लिखा है कि चेद-पुत्र कछु ने एक कवि के
१०० मैंसें और दस हजार गाये' दी थीं। वैदिक काल में यह भ्रवश्यमेव बड़ा
भारी दान समझा नाता रहा हेगा और करोड़पतिये के हेते भी इस जमाने में भी
न्यून नहीं हैं। मिश्रवश्ुओं ने तृत्ठु लागों के दूर्यवंशी माना है। देहय अपने
को सदैव चंद्रवंशी कहते आए हैं। क्या त्रितसौय॑-चर्चा में चंद्रवंशियें की, महा-
प्रतापी सबंवंशियो की हीनता दिखलाकर, स्तुति ते नहीं छिपी है ? जे हो, इस
लंबी टिप्पणी के लिखने का अभिप्राय यह है कि कदाचित् विज्ञ पाठकों को नजर
में पड़ने से कोई महानुभाव इस जटिल समस्या की पूर्ति कर दें, क्योंकि मुझे न ते
डा० कौलहानं के एलोकार्थ से सताष है और न अपने हीं लगाए, अथ से।
सप्तम अध्याय डरे
से चार मील पर, रायपुर नामक प्राम में, कलचुरि क्षत्रियों की अब भी
बहुलता मै। उसमे प्राचीन नाम का पअपक्र श द्वाकर अब करचुलिया
दे गया है ।
; प्राचीन राजधानी से उठकर कलचुरियों ने जबलपुर के निकट ६
मीछ पर त्िपुरी नगरी में अड्डा जमाया! वहाँ त्रिपुरेश्वर महादेव अब
भी विद्यमान हैं। त्रिपुरी का नाम न्निप्ररेश्वर के
नाम स॑ पड़ा या तिपुरेश्वर न्रिपुरी या त्रिपुरनगर के
महादेव दोने से कद्दलाए, इसके निर्णय के लिये सामग्री नहीं दे, परतु
प्रिपुरी कल्चुरियों के आगमन के पूर्व ही से प्रब्यात थी। इसका
प्रमाण वहाँ के प्राचीन सिक्कें से मिलता है। ये सिक्के सम् ईसवी
से ३०० वर्ष पूरे के दैँ। इनमें नर्मदा नदी का चित्र बना है। नर्मदा
भिपुरी के पार्रव ही में ऐ। त्रिपुरी का वर्तमान नाम तेवर दै। यहाँ
पर प्रनुपप्त फारीगरी के प्राचीन ध्वसावशेष भ्रव भी विद्यमान दे, यथपि
सडक के ठेऊदारों ने गत सी वर्ष फे भीतर लाखों मन पत्थर झुदर दर्म्यों
पर प्रासादों से निफाल लिए शौर इमारतो का नाश फर दिया है।
घष्दाँ फे गढे गढाए पत्थरों फे ढोने के लिये ट्रामवे लगाई गई थी प्रौर
पत्थर मिट्टी फे मेल सरीदे गए थे, विस पर भी वहाँ फे मालगुजार को
प्राय पैन लाख रुपया इसी अनथ से मिल गया घा। इससे सरलता
से अनुमान किया जा सकता है कि वहाँ पत्थर का कितना बहुत सा
फाम था, जो ताड फोडकर सडफकों और पुलों में लगा दिया गवा।
मिरजापुर की सडक फे पुर्लों में श्रधफृटो मृत्तियाँ इसकी साक्षी देती हैं।
जो थोड़ी बहुत मृर्तियाँ बच गई हैं, उनसे कलचुरि-शिल्प की उत्तमता
स्पष्ट दीख पड़ती दै ।
त्िपुरी के राजाश्रो की सिलसिलंवार वशावली फोकस्लदेव से
्रारभ होती प। उसका विवाह चदेलों मे हुआ घा पैर उसने अपनी
कन्या दक्तिय के राठार राजा द्वितीय रुृप्ण का
ब्याह्दी थी । ,मीकल्ल ने इस राजा को सिद्दासन
प्राप्त करने में यड़ो सद्दायता दी थी, क्योंकि भन्य रिश्तेदारों ने गद्दी फे
ड्र्
प्रिषुरी
आदिराजा
३७ ' मध्य प्रदेश का इतिहास
लिये झगड़ा किया था | इसी तरह उसने गुजरात के राजा भोज,
चिन्नकृद के चंदेल राजा हपदेव और नैपाल की वराई के शंक्रगा की
सका की थी । इससे स्वयं सिद्ध है कि कीकटल बड़ा भारी राजा था |
कोकरल फे १८ पुत्र थे। जेठ का नाम मुग्धतुग प्रसिद्धधवल था| वह्द
त्रिपुरी के सिंदासन पर सन् €&०० ३० के लगभग बैठा और उसके भाई
अनेक मंइततों के सांडलिक बना दिए गए। कुछ भाइयों ने विज्ञासपुर
जिले की ओर मंडत्त पाए । उनमें से एक ल्ाफा जमीदोरी के अंतर्गत
तुम्माण में जाकर जम गया। यह स्थान स्वाभाविक किक्षान्सा हैं
क्योंकि यह चारों ओर से ऊँचे पद्दाड़ों से घिरा हुआ है, केवल उपरोध
की ओर से भीतर जाने को साग है। प्राचीन काल में राजा लोग इस
प्रकार के सुरक्षित स्थानों का अपना निवासस्थान बनाते थे। अठारदह
लड़कों में से दे। ही ऐसे निकनते, जिम्होंन अपने बंश की कीति का
प्रसार चारों श्रेर कर दिया। तुम्माण की शाखा महाकाशल और
त्रिकलिंग के अपने स्वाधीन करने में दत्तचित्त हुई और त्रिपुरी की
मूलगद्दी ने अपना विस्तार उत्तर में नेपाल, पूर्व में बंगाल, पश्चिम में
गुजरात और दक्षिग में करणाटक-निकटस्थ कुंतल देश तक कर
दिखाया। मुग्धतु'ग ने काशल्न के राजा से लड़ाई ली थी और उससे पूर्व
समुद्र की ओर की प्रधान पुरी पाली छीन लीथी। ( विजित्य पूर्वा-
म्वुधिकूलपात्ती: पालीस्समादाय च कोसलेंद्रातू । निरन्तरोट्रासितवैरि-
घामा धामाधिक: खड़गपतिये आसीत् । )
मुख्धतु ग के दे लड़के थे--वाल्हप और कंयूरवष युवराजदेव ।
ये देने भाई एक के पीछे एक गद्दी पर बेठे। युवराजदेव ने चालुक्य
राजा अवनिवर्मन् की कन्या ने।हलादेवी से विवाह
किया। इस राजा ने गोलकी सठ नासक शेव मठ
के महंत सदुभाव शंभु का अपने डाहल देश से ३ लाख गाँवों की
जागीर दी थी। उस समय यमुना और नमेदा के सध्यर्थ डाहल देश
में < लाख ग्राम थे। गोलकी मठ का अर्थ गोमठ ही होता है।
डाहल देश में भेड्ाधाट के सिवाय दूसरा कोई स्थान नहीं दिखता
गोलकी मठ
सप्तम अध्याय ड््र्
जहाँ पर इतना बडा मठ रहा हो। ऐसे मठ की स्थापना भी
शाजथानी फे निकट ही सेची गई द्वोगो। भेडाघाट त्रिपुरी से ६ मील
नर्मदा फे किनारे पर है, जहाँ पर चैसठ योगिनियो का प्राचीन मदिर
क्रभी तक विद्यमान है। गेोलकी सठ के आचाये पाशुपतपथी शैव
थे, जिनके मत से योगिनियो का विशेष सबध धै। इसलिये यष्ट वात
सिद्ध सी जान पइती है कि गेलकी मठ भेडाघाट दी का चौंसठ
योगिनिये। का मदिर है। भारतवर्ष स इस प्रकार के मठ पाँच-सात से
अधिक नहीं ऐहैं, उनमे से बहुत्तेरे मध्य प्रदेश के श्रवर्गत या उसके प्रासपास
द्वी पाए जाते हैं । बु देलसड मे खज़ुराहे का चैंसठ योगिनी का
भदिर प्रसिद्ध धा। बह भव बिल्कुल दृट फूट गया है क्रौर येगिनियों
की मूर्तियाँ भी उठ गई हैं। सजुराहो मे किवदती दे कि वहाँ की
येगिनियाँ प्रप्रसन्न द्वोकर नर्मदा-किनारे भेडाघाट का चली गई ।
इसफा कुछ भथे दे सकता है ते! यही कि सजुरादे का मदिर प्राचीन
था। उसके पश्चात् भेडाघाट मे उससे बढ़कर मठ बनाया गया, जिससे
खजुराहो फे मदिर की फीवि लुप्त दे गई। परतु सजुराष्दा-निवासी,
जिनका स्थान अमुपभ मदिरों से परिपूर्ण था, यद्द सहन नहों कर सके कि
मेडाघाट का सदिर उनके यागिनी-मदिर से बढिया कहा जाय। इस-
लिये उन्होंने भेड़ाघाटवालों का चोरी लगा दी, परतु 'ऊँट की चोरी
छिपे छिपे! नहदों द्वाती । उनका यह समझक्राना कठिन द्वो गया कि इतनी
घशनदार चीजें सैकडों मीलों पर कैसे पहुँची होगी। तब फद्द दिया कि
मूर्तियाँ ही हमसे श्रप्रसन्न देकर चल दों छोर नर्मदा फे किनारे उन्होंने
अपना निवास शिथिर कर लिया। इसमें फलचुरियों की कुछ फरतून
नही। खजुरादा चदेलों की रानघानी थी। कलचुरियों और चदेलों
फे बीच हिरस थी, इसलिये दे पक दूसरे से जलते थे। भेडाघाट फे
सठ से एक विशेषता यद्द दे कि वद्द मिल्कुल गोलाकार बना है,
खजुरादे और प्रन्यत्ग फे मठ चतुप्कोण हैं। फदाचित् गोलाकार
होने के कारण से ही नमेंदा तठस्थ मठ का नाम गोलकी सठ रख
लिया गया हो ।
क््ू मध्य प्रदेश का इतिहास
केयूरवष युघधराजदेव का समय €२५ ईसवी के लगभग पड़ता
है। उसकी मझत्यु के पश्चात् उसका लड़का लक्ष्मणराज €५० ईसवी के
लगभग सिंहासन पर बैठा । उसने पश्चिम में
समुद्र-पर्य'त घावा किया और ल्ाठ श्रर्थात् गुज-
रात के राजा का हरा दिया, फिर समुद्र में स््तान कर सोमनाथ के महा-
देव की पूजा की। कन्नौज में गुजर राजा के स्थान में उसने अपने एक
लड़के को गद्दी पर विठा दिया जो फाशलाधीश कहलाने लगा । उसने
बंगाल्न के पाल राजाओं का भी पराजित किया और कश्मीर के बीरों से
कुन्नस करवाई | उसने अपनी लड़की बोठादेवी दक्षिण के चाल्ुक्यों
'का दी थी जिनका लड़का महाप्रतापी तैलप हुआ। उसने अपने वंश
के गिरे हुए राज्य का पुनरुत्थान किया। लक्ष्मणराज के दो लड़के थे,
शंकरगण और युवराजदेव ( द्वितीय )। ये एक के पीछे एक गद्दी पर
बैठे । इनसे कुछ नहीं वन पड़ा, विज्ञयय करने फे बदले उलटे हार
खा बैठे | द्वितीय युवराजदेव के समय में मालवा के राजा वाकूपति
भुंज ने ज़िपुरी पर चढ़ाई की और उसे हरा दिया। इसी सुंज
ने युवराजदेव के भानजे तैलप का १६ वार हराया, परंतु सन्न-
हवीं बार तैलप ने उसका सिर काट लिया। तैलप बड़ा लड़ाका
था। उसने अपने मामा युवराजदेव पर भी चढ़ाई की और
उसे हरा दिया। द्वित्तीय युवराज देव का पुत्र द्वितीय काकल्ल हुआ।
वह सन् १००० ईसवी के लगभग सिंहासन पर बैठा, परंतु
उससे भी कुछ पराक्रम नहीं दिखलाया। हाँ, इतना अवश्य
किया कि उसने ऐसे सुपृत को जन्म दिया जिसने चेदि के राज्य का
शिखर पर पहुँचा दिया |
प्रथम सुपुत्न गांगेयदेव था जिसने १०१७ ईसची के भीतर भीवर
सेपाल और तिरहुत तक अपना आतंक बैठा दिया । उसने दक्षिण में
ग करणाटक-निकटस्थ कुंतल देश पर आक्रमण किया
हे ओर वहाँ के राजा का हरा दिया। वह बेचारा
सुध-डुध-हीन बिखरे केश भागा जाता था, परंतु गांगेय की राजेचित
चढ़ाव उतार
सप्तम भश्रध्याय ७
दया से 'अकुन्तल्त कुन्तलतां बभारः* प्र्धाव् कुवल देश विहीन ने कुतल-
स्वामित्व पुन धारण किया। कक््येकि गाँगेयदेव ने उसका देश लौटा
दिया। ऐसे ह्वी विक्रमो के कारण इस राजा का नाम विक्रमादित्य
पड गया। परतु यह न समझ लेना चाहिए कि उसकी कभी हार
नहीं हुई। ऐसे पराक्रमो पुरुषों फे कोई भी कृत्य हों, वे सब उपसान
बन जाते हैं। एक बार गांगेयदेव ने तिलगाने के राजा को साथ लेकर
धार के सेज पर चढाई की, परतु द्वार गयां। तब ते घार के निवा
सियों के घम्ढ़ को सीमा न रही । वे कहने लगे “कहाँ राजा सेज और
कहाँ गांगेय तैलगण” । अब इस कद्दावत का अपश्र श द्वाऊर “क्रो
राजा भोज कहाँ गांगू तेलन” दो गया है। अरब-निवासी सस्कृतश्ष
यात्री अलवेहनी ने अपनी पुस्तक म॑ इस राजा की बडी प्रशसा लिखी
है। जिस समय वह यहाँ प्राया था उस समय डाइल देश का राज्य
गांगेय के ही हाथ में था। त्रिपुरी के राजाओं के जे। सेने चाँदी के
सिक्के मिले दे वे इसी राजा के है, अन्य के श्रभी तम प्राप्त नहीं हुए।
गांगेयदेव अपने राजयांत्तगंत प्रयाग से अश्रच्षययट फे पास बह्घा रहा
करता था। श्रत में उसने प्लपनी १०० स्थियों फे साथ वहां पर मुक्ति
पाई। उसकी मृत्यु सनू १०४१ ईसवी में हुईं। त्रिपुरी भारत के
ठीक मध्य में है। गग्रियदेव ने अपने अतुलित प्रताप से उसे भारत-
साम्राज्य का केंद्र बता दिया। उसके समफालीन चदेल राजा विजयपाल
फे एक लेप में 'जितविश्व गांगेयदेव ” लिखा हे, अर्थात् वद्द गांगेय-
देव जिसने विश्व का जीत लिया घा।
गांगेयदेव ने फन््नौज फे गुज़र-प्रतिद्वार बश की बिलकुल जड़
उखाड़ दी थी और वहाँ का शासन शपने युवराज कर्यदेव फे अधीन फर
दिया धा। जय कर्ण सिद्दासम पर बैठा तब उसने
अपने बाप से भी झधिक ऐसा प्रताप दिखलाया
कि कन्याकुमारी निकदरथ प्रांत के पॉठ्य राजा शअ्रपन्ती चडिमत्ता भूल
#रणंदेव
१--अ्रस्याये केशविद्ीन ने केशमयत्य धारण किया । ( रिराबामास)
श्र मंध्य प्रदेश का इतिहास
गए, मालाबार के मुरत्तों का घमंड विज्ञीन ही गया, कोयंबटूर के कंग सीधी
चाल चलने लगे, बंग ( बंगाल ) और कलिंग ( उड़ीसा ) के लोग काँप
उठे, काँगड़े के कौरों की, सुग्गे की नाई' अपने पिंजरे के भीतर से, बाहर
आने की हिम्सत न पड़ी और पंजाब के हों का प्रहष लुप्त दा गया।
उसने चंदेलों पर चढ़ाई कर उन्हें राज़्य-च्युत कर दिया। मालवा पर
आक्रमण कर भाज से राजमेग छीच लिया और कन्नौज का राज बिल-
कुल अपने करतत्ल-गत कर लिया। उसने मगध पर दे। बार घावा किया,
उनमें से एक का वर्णन तिब्बती भाषा की पुस्तकों में भी पाया जाता है ।
दक्तिण के चोल, पांड्य और केरल देश उसके घावे से नहीं बचे; परंतु
वहां उसने स्थायी रूप से राज्य नहीं जमाया। ऐसे ही उसने तिलंगाने
पर चढ़ाई कर त्रिकलिंगाधिपत्ति का विरुद धारण कर लिया परंतु सेम-
बंशियों का विल्कुल निकाल नहीं दिया ।
'रासमाला? से लिखा है कि १३६ भूपति कर्ण डद्रिया की संवा
करते थे। परंतु “सब दिन हात न एक समान |” जिन जिन को
कण ने निकाला था उनके हृदय की दाह केसे कम हा। सकती थी।
उन्होंने भीतर ही भीतर उसकी नीचा दिखाने का उद्योग किया | चंदेल
राजा कीर्तिवर्सन ने सेना इकट्ठी कर पंत में लड़ाई ठानी और “विश्व-
विजयी? कर्ण के हरा दिया। उस जीत के उपलक्ष्य में 'प्रबोध-चंद्रोद्य!
नाटक रचवाया गया जिसमें कर्ण की हार और चंदेल सेनापति गोपाल
द्वारा कीत्तिवर्मन की राज्य-प्राप्ति दिखलाई गई । इसी प्रकार मालवा के
राजा उदयादित्य ने भी लड़ाई करके अपना राज्य-बंधन मुक्त कर लिया |
कदाचित् इन्हीं बातों से निराश हो कर्ण ने अपनी गद्दी खाली कर दी
हा, क्योंकि उसने अपने जीते जी अपने पुत्र यश:कर्येदेव का महाभिषेक
करवा के उसे सिंहासन पर बिठा दिय्या। कर्ण स्वयं सिंहासन पर
प्राय: पच्चीस वष रहा परंतु उसने अपने साम्राज्य की वह उनन्तति कर
दिखाई जैसी उसके वंश में आगे पीछे किसी ने कंभी न कर पाई |
इसके एक पूरवज की उपाधि चेदिचंद्र थी। तब ते कशे का चेदि-
िलंद्र कहना चाहिए। परंतु इसी वीर के साथ कलचुरि-्ययुक्लपत्ष
९० मध्य प्रदेश का इतिहास
है कि वह सन् ११५० ईसवी में अवश्य राज्य फरता था। उसका
देहांत सनू ११४५ के पूर्व हा गया, क्योंकि उस सन्त का साम्रशासन
उसकी विधवा रानी-द्वारा दिया गया पाया जाता
| जान पड़ता है, गयाकग के समय में चेदि-
राज का बहुत सा भांग हाथ से निकल गया। गयाकर्गी ने मेवाड़ के
गुहिलवंशी राजा विजयसिंह की लड़की से विवाह किया था। उसके -
दे पुत्न नरसिंहदेव और जयसिंहदेव हुए, जे। एक के पश्चात एक गही
पर बैठे। नरसिंहदेव के राज्यकाल फ॑ शिक्षालेस्व १९१४५ ४० से ११४८
तक के मिले हूँ श्रार जयसिंह के ११७५ व ११७७ के मिल्ले जय-
सिंह का पुत्र विजयसिंह सन् ११८० के लगभग उत्तराधिकारी हुआ |
हाल ही में रीवाँ मे एक लेख मिला है, जिसकी तिधि सन् ११६२ ६०
में पड़ती है। तब विजयसिंदह ही का राज्य था। ऐसे ही सन ११५४५
४० के एक पश्लर लेख में उसका जिक्र आता है, कौर उसमें उसका
घिरुद परमभट्टारक सहाराजाधिराज परमेश्वर परसमाहंश्वर त्रिकलिं-
गाधिपति दज है। विजयसिंह का लड़का अजयसिंह हुश्रा, परंतु
उसके राजत्व-काल का कोई लेख अभो तक नहीं मिला। विजयसिंह
के समय तक टोंस नदी के दक्षिण का भाग कल्चुरियों के अधीन था |
परंतु रीवाँ के सनू १२४० ई० के चंदेल ताम्रशासन से जान पड़ता है
कि वह भाग उस संबत् के पूर्व चंदेलों के अधिकार में चल्ला गया था।
कब आऔर कैसे गया, यह अभी तक तिमिराजृत है। इस प्रकार
त्रिपुरी के कलचुरि-कृष्णपत्त की अमावस्या पूर्ण अधकार-युक्त समाप्त
होे। गई। तिस पर भी सध्य प्रदेश के एक कोने में कलचुरिवंश
का अेश बना ही रहा। बता चुके हैं कि तुम्माण के मांडलिक
त्रिपुरी-परिवार हो के थे। ये काल्ांतर में स्वतंत्र हा गए थे।
इनका सिलसिला उन्नीसवीं सदी तक चला, इसलिये इनका अलग
वर्णन किया जायगा। इसके पूर्व हम त्रिपुरी के प्रभावशाली
नरेशों की शासन-पद्धति और धर्म का कुछ दिग्दशन यहाँ पर करा
देना चाहते हैं।
ब्रिपुरी के अंतिम राजा
संप्तम अध्याये ४१
कलचुरियो फे समय में शासन-प्रणाली उच्च श्रेणी को थी।
यद्यपि उनके राज्य का अ्रव इतना विस्मरण छह गया है कि स्थानीय लोग
उनका नाम तऊ नहों जानते, तथापि थे जे अनेक
शिक्षा व॒ ताम्र लेस छोड गए हैं उनसे उनकी
शासन-पद्धति का कुछ छुछ पता लगता दै। यथा, यश कर्ण के एक दान-
पन्न में निम्नलिग्यित उल्लेस है---
सच परमभट्टारम महाराजाधिराज परमेश्वर श्रीवामदेवपादानु-
ध्यात परमभट्टारफ महाराजाधिराज परमेश्वर परममाहेश्वर त्रिकलिगा-
घिपति निजभुजोपार्जिताश्वगजपतिनरपतिराजत्रयाधिपति श्रीमग्मश कर्य-
देव । श्री महादेगी, मददाराजपुत्र , महामन्त्री, महामात्य , महा-
सामन््त , महापुरोहित , महाप्रतीहार महाक्षपटलिक , महांप्रमान्न ,
महाश्वसाधनिफ , महाभाण्डागारिक , भहाष्यक्ष , एतानन्यांश्च प्रदास्य-
सानप्रामनिवासिजनपदा आाहूय यधाई सम्मानयति येधयति समाज्ञापयति
विदितमेतद्स्तु भवता यथा सबत् ८२३ फाटगुनमासि शुक्लपत्े चतुर्ईश्या
रबे। सक्रान्ते वासुदेवाद शे देवमामपत्तलाया देउलापचेलमामस ससीमा-
पर्यन्व चतुराघाटविशुद्ध सजलस्थल साम्रमधूक सगर्त्तेपर सनिर्गम-
प्रवेश सलवणाकर संगेप्रचार सजाडलानूप वृक्षारामेदुर्भ दोद्यान-
तृथादिमहित कान्वसगोत्राय श्राप्ववन जामदग्नि त्रिप्रवराय बहुब्च-
शासिने सीआपैजाय छोतपईपुन्नाय गड्डाधरशरमंणें आह्मणाय भ्रावापित्रो-
रात्मनश्च पुण्ययशामिश्रृद्धये झ्रामेयमस्मासि शासनत्वेन सप्रदत्त |
इससे स्पष्ट ध्वात होगा कि प्राचीन फाल में दान मुख्य मुण्य
राज्याधिकारियों के सामने दिया जाता घा, ताकि वह भूल या भराति से
फिर कभों छीना न जाय । ऊपर उद्धृत लेस से प्रकट ऐै कि दान देते
समय शजा, रानी और युवराज के अतिरिक्त राजसभा के मुख्य दस
अधिकारी, घथा जे गाँव दिया गया उसके निवासी, उपस्थित थे | श्रधि-
कारियों के नामो स ही क्षात होता है कि निदान राजशासन के नव या
दस विभाग ( महरूमे ) थे, जिनक॑ अलग अलग अष्यक्ष थे। महाराज-
पुप्र के पश्चात् मद्ामत्री का नाम प्राता है, जे प्रवश्य प्न््य सब विमागीं
फलचुरिशासन पद्धति
घर मध्य प्रदेश का इतिहास
का स्वामी रहा करता था. जैसा कि अब भी दाता है । उसके बाद महा-
मात्य का दर्जा रहता था, जिसकी राजा की कॉसिल का मुखिया सम-
झना चाहिए। इसी प्रकार सेना का स्वार्मी मद्दासामंत धर्म का महा-
पुराहित, राजमहल का महाग्रतीहार लेख-विभाग का महाक्षपटलिक
व्यवहार-पद्धति का महाप्रमान्न, घोड़ों आर सवारों का महाश्व-साधनिक
खजाने का महाभांडागारिक और अन्य विभागों का देख-रेख करनेवाला
महाध्यक्ष रहता घा। किस विभाग में कान कान सी वाते' सम्मिलित
थीं इसका ब्योरा तो प्राप्य नहीं हैं परंतु दान की शर्तों *ही से प्रकट
होता हैँ कि कितनी वारीकी क॑ साथ कारवाई हुआ करती थी । ऊपर
वर्णित दानपत्न की शर्तों' से पता लगता है कि गाँवों के चारों ओर सीमा
बनी रहती घी | किसी किसी लेख से जान पड़ता है कि जहाँ स्वाभा-
विक सीसा नहों रहती थी वहाँ खाई खादकऋर बना ली जाती थी।
इतनी वारीकी इस शिक्षित काल में भी नहों की जाती । जलन, स्थल,
आम, सहुआ, गढ़ढे, खान, नमकवाली भूमि, गोचर, जंगल, कछार,
वाग-बगीचे, लता, घास, बीड़ां (घास क॑ संदान) इत्यादि का ही लेख नहीं
है, परन् गाँव में आने जाने क॑ रास्तों का अधिकार भी लिख दिया गया
है, जिससे ज्ञात होता है कि माल और खत्व का सूच््म रीति से विचार
किया जाता घा। हर एक विभाग में अलग अलग लेखक ( मुहरिर )
हते थे, जेसे धर्मविभाग का लेखक धर्मलेखी कहत्ताता था ) कारवाई
शोच्नता के साथ हाती थी, क्यांकि कई दानपन्नों से पता लगता है
संकरप करने क॑ घोड़े ही दिन पश्चात् ताम्रशासन दें दिए जाते थे ।
अब जितनी देर कागज पर नकल करके देने में लगती है उतनी कदाचित्त्
ताम्नपत्रों पर शासन खुदाकर देने में न लगती थी ।
कलचुरि शव थे आर घ॒र्म पर उनकी बढ़ी श्रद्धा थी। पोछे
वर्णन कर आए हू कि उन्होंने ३ लाख गआ्रामां की जाग्रीर एक मठ को
दे दी थी। उन्तकी धरंशालाओं में ब्राह्मण ओर
चांडाल सभी का समरृष्टि से दान दिया जाता
था। उनके विचार उच्च कोटि के थे ।
कलचुरि-धम
सप्तम भध्याय॑ ४३
पापाणश्शिवसस्कारातू भुक्तिमुक्तिप्रदों भवेत्।
पापाणशिशवता यातति शृद्रस्तु न कथ भवेतु ॥
[ सस्कार तें पत्थरहु, भुक्ति मुक्ति प्रद द्वाय |
पत्थर जे शिव हाय ते, शूद्र क्यो न शिव द्वाय ॥ ]
मठो के अधिकारी पाशुपत-सप्रदाय के शैव रहते घे। यह
सप्रदाय दक्षिण फे द्राविढ भ्ाह्मणों मे बहुत प्रचलित घा। वहाँ भी
अ्रनेक सठ स्थापित किए गए थे, जे। गेलकी मठ से सवध रखते थे।
इस पथ के प्रचारक दुर्वासा मुनि समझे जाते हैं। गोलकी मठ के
प्रथम महतव सद्भावशभ्भु हुए थे। वे फालामुख शाखा को पालते थे।
कालामुस शैव निम्नलिसित छ मुक्तिमार्ग मानते हैं--( १) खेपडे मे
भोजन करना, ( २) शरोर में शव की रास लेपन करना, ( ३ ) रास
खाना, ( ४ ) दड धरना, ( ५ ) मदिरा का प्याला पास रखना श्र
(६ ) योनिस्थिव देव का पूजन करना |
कलचुरियो ने इन्हीं आचाय! को ३ लास गाँव अपंण किए थे ।
यद्यपि गाँव व्यक्तिगत अतिसृष्ट किए गए थे, तथापि सद्भावशभु ने इस
भारी जायदाद को अपने पास नहीं रसा, सब मठ को साप दो | इसी
सठ के एक सद्ृत सेोमशभु हुए, जिन्होंने सेमशभुपद्धति नाम का श्रथ
लिफा । उनके पश्चातू वामशभु हुए। उनके सहस्त्रों चेले थे, जिनके
आशीर्वाद के लिये नूपतिगण भो बडी अमभिलापा रसते थे। महत की
गद्दी के लिये बडे योग्य पुरुष चुनें जाते थें। एक महत विमल्ञशिव
मड़ास के प्रतर्गत करल देश से पैदा हुए थे। उनके शिष्य धर्मशिष हुए ।
उनके शिष्य विश्वेश्वर शभु बडे ओ्रेजस्वी हुए । ये बगाल के पश्रतर्मत राढ
में पैदा हुए थे यार बड़े नामी वेदक्ष थे । इन्हीने निज्ञाम-राज्य फे अ्तर्गत
वारगल देश के काऊतीय राजा गगापति का दीक्षा दो घी और चेल,
मालवीय तथा फल्चचुरि राजानओ का भी शिष्य बना लिया था। गय-
३--प्म॑ नल्तृदचतस इलयुगक्मापालचूटमणि ,
ग्रामाणा सुबरानदेबन्रपति मिन्ता तरिल्लर्त ददा ॥
६9 मध्य प्रदेश का इतिहास
पति राजा ते इनके पिता कहते थे श्रार इनके आदेशानुसार गौड़
अर्थात् बंगाल के अनेक शैव साधुओं श्रौर श्रनगिनती कवियों को पुर-
स्कार दिया करते थे |
विश्वेश्वरशंभु स्वयं छदारचरित्र थे। उन्होंने सब जातियों के
लेगों का सदावत मिलने का ही प्रवंध नहीं किया था, बरन् अस्पताल
धात्रीयृह कलर सहाविद्यालय भो स्थापित किए थे। संगीत और नृत्य-
कला को भी वे उत्तेजन देते थे। यहाँ तक कि बहुत से गवैए काश्मीर
से वुल्ञाकर रखे थे। ग्राम-प्रबंध के लिये वीरभद्र आर वीरमुष्टि इब्यादि
नियुक्त किए थे । निस्संदेह विश्वेश्वरशंभु ने तत्कालीन प्रणाली के अनुसार
त्रिल्नक्षम्रामीय जायदाद का प्रबंध किया होगा। विश्वेश्वरशंभु सन् १२५०
ई० के लगभग विद्यमान थे | वह कलचुरियों की श्रवनति का समय था |
यही फारण है कि विश्वेश्वर स्वामी काकतीयों के यहाँ जाकर रहे ।
यथ्पि कलचुरि ऋट्टर शव थे, तथापि उन्होंने दूसरों के धर्म में
कभी हस्तक्षेप नहीं किया। तेवर के निकट गोपालपुर नामक ग्राम में
अवलेकितेश्वर और तारा की मूत्तियाँ मिली हैं, जिनमें वाद्धधर्म का
घीजमंत्र खुदा हुआ है। यदि कलचुरि उदारचित्त के न होते ते बीद्धों
का, जिनकी शौबों ने ही भारत से निकाला था, ठहरना कठिन हो जाता।
कलचुरियों के शिल्प का कुछ वर्णन हम पीछे कर चुके हैं।
उन्होंने अनेक विशाल संदिर, धर्मशालाएं , अध्ययनशालाएं , मठ इत्यादि
अपने राज्य के अनेक स्थानों में स्वयं या प्रजावर्ग
द्वारा बनवाए थे, जिनकी कारीगरी एक प्रकार को
विशेष छटा दिखल्ाती है। पुरातत््व-विभाग के एक मर्मज्ञ ने उसका
नाम ही कल्चुरि-शिल्प रख दिया है। कलचुरि-मंदिर आदि के दर-
वाजों पर वहुधा गजलर्मी या शिव की मूर्चि पाई जाती है। गजलक्ष्मी
डस वंश की छुलदेवी थी श्रेर कुल उनका शिव-उपासक घथा। इसी
कारण प्रत्येक राजा अपने विरुद में 'परममाहेश्वरः शब्द का डपयोग
करता था। इस दंश के ताम्र-शासन सदेव आओ नम: शिवायः से
आरंभ हेते हैं। कलचुरिये साहित्य-प्रेमी भी बड़े थे।
शिल्प और साहित्य
सप्तम अध्याय है."
कई विद्वानों का मत है कि इन्हों की राजसभा में घुरघर कवि
राजशेसर रहते थे । कलचुरियों की विलहरी की प्रशस्ति में राजशेखर
के विषय में यों उतलेस किया गया है--
“सुश्लिष्यधघटनाविस्सितकविराजशेसरस्तुत्या |
प्रास्तामियमाकतप कृतिश्च कौतिश्य पूर्वा च ॥!
पअर्धातू , इस प्रशस्ति की रचना को देखकर कवि राजशेलर
विश्मित हा गए थे और उन्होंने उसकी वो प्रशसा की थी | इससे रपष्ट
जान पडता है कि राजशेखर कोई यडे प्रतिभाशाली कवि थे | शोध से पता
लगा है कि राजशेखर ने फविकुल में जन्म लिया था प्रौर अपना [विवाह-
सबंध भी एक ऐसी सती से किया था जे फबि थी। इनकी खल्रो चेहा-
लिन थो और फाव्य रहस्य अच्छी तरह जानती थी । स्वय राजशेखर
से अपने अप्रतिम काव्यमीमासा? भ्रध में कम से कम तीन बार अचति-
सुदरी फे भत का हवाला दिया है। अपने कर्पूरमजरी नाठक में
उन्होंने भ्रपनी पत्नी का परिचय यों दिया हे--
४वाहुआएणकुलमैलिमालिमा राज्जसेहरइन्दगेहियो |
भत्तुणे किहमवन्विसुन्दरी सा पडब्जइ%मेजमिच्छ३ ॥०
राजशैपर अपने पुरफों फो महाराष्ट्र-हुल चूडामणि लिखते हैं ।
उनके बिवाह-सवध से स्पष्ट है कि वे क्षत्रिय थे। बिलहरी के प्रशस्ति-
लेखक कुछ फम दर्जे के कवि नहों थे, परतु जब राजशेसर से उनके
प्र घ का अनुमेदन कर दिया, तय ते वे फूले नहीं समाए और उन्होंने
अपने लेस मे इस बात का समावेश कर दिया। इस प्रदेश में रवय
राजशेसर-कृत फोई प्रशस्ति उपलब्ध नहीं हुई, परतु उनके चेल्ों ही
की कृति हम लोगों के विनोद के लिये बस है। दजार वर्ष पुरानी
कविता का एक नमूना लीजिए---
बाचामुण्ज्यलमापि भारित यदि से तरकीत्त्यैमानेन्नते-
रस्मादेव महीयस शशस्षता चर्शात्स सम्पत्स्यते।
यद्वा पश्य निसग्गेकालिमभुतराष्याशेमदानच्छटा
चीरोदन्वति किन्न समतिशृतस्तत्छायर्ता बिश्नति ॥
छ्ट६ मध्य प्रदेश का इतिहास
अर्थात् “यथ्पि मेरे उज्ज्वल्ञ वायी नहीं है, तथापि इसमें संदेह
नहीं कि उसकी चमक इस चंद्रबंश से आ जायथगी, जिसकी मैं प्रशस्ति
लिखता हूँ। क्या नेंसगिक कालिसा की जगह भी दिग्गजों के मद
की धाराओं से मिलते ही समुद्र की फेन के समान चमकने नहीं लगती
है ?” यह प्रशस्ति रानी नोहलादेवी ने अपने बनवाए हुए शिवमंदिर
में लगवाई थी। एक दूसरी रानी अल्हणदेवी ने सन् १११५ इंसवी में
मेड़ाघाट में दान किया था और एक प्रशस्ति लिखवाई थी । उसके
रचयिता थे प॑ं० शशिघधर। आप काव्य में अद्भुत निपुण और तक्कशास्तर
के विशेष विद्वान थे। आपने अपने संबंधियों का भी कुछ जिक्र कर
दिया है---आपके भाई का नाम पृथ्वीधर था, जे समस्त गंभीर शाखा-
गंवपारगामी थे। इनकी कान कहे, इनके शिष्यगणों ने दिग्विजय कर
डाला था। आपके पिता का नाम घरणीधर था, जिन्होंने अपने नाम,
गरिसा, यश और श्री से 'धरणीधरः शब्द के साथेक कर दिया था।
आप कोमल कांति-स्नेह के भार से भरे हुए दीघ मनोज्ञ दशा से पुर्ण
माने त्रिभुवन के दीपक थे। प्रेमपूरें कवि-द्वारा अपने पिता की यह
प्रशंसा क्षंतवग्य है। शशिधर जबलपुरी पंडित मालूम होते हैं। वब
ते ये अवश्य त्रिपुरी अर्थात् तेवर में रहते रहे होंगे; नहीं तो ये अपने
पुरखों का मूल स्थान बिना बताए न रहते
शशिधर की कविता शशि-सी सुहावनी और गृढ़ थी। आप
ताकिक थे ही, इसलिये आपकी कविता का अनेक तर्कनाओं से भरी
हुई दाना काई अचरज की बात नहीं। शशिधरजी ने भेड़ाघाठ-प्रशस्ति
में, आरंभ में, शशिशेखर की बंदना श्ल्लोकों में की है। पहले श्लोक में
शशिधर रूप में महादेवजी का आशीर्वाद दिल्लाया गया है, दूसरे में
गंगाधर रूप से, तीसरे में अष्टांग से और चौथे में नीलकंठ रूप से।
नमूने के लिये हम यहाँ पर दूसरा और चौथा श्लोक उद्घृत करते हैं |
दूसरा श्लोक यों हैं--.
कि माला: कुमुदस्य कि शशिकला कि धम्न्येकर्मांकुरा:
किंवा कंचुकिकंचुका: किमथवा भूत्युद्टमा भान्त्यमी |
अषप्टम अध्याय घ्छ
इ (१ ) न््माकि वितक्किता शिवशिर सचारिनाकापगा
रिड्ृहरगुतरडूभड्लिततयपुण्यप्रभा पान्तु व ॥
वे पुण्य के फुद्दारं, वे शिव के सिर में आऊाश गगा की ठेढी-
मेटो बहती व कूदती दरें तुम्हारी रक्षा करें जिनको देखकर स्वर्ग के
देव गधे मन में सना करते हैं कि ये कमल की माज्नाएँ ते। नहीं हैं
अथवा ये चढद्र फी फलाएँ, पुण्य कर्म के प्रकुर, साँप की फचुल या
ईश्वरीय प्रभा का आविर्भाव है |
चौथा श्लोक अनुप्ठप् दै--
शक्तिद्ेतिपरप्रीतिहेतुश्चद्रक्रचचित |
ताण्डवाडम्बर कुर्य्यान््नीलकण्ठ प्रियाणि (१)॥
वए नोलकठ, जो परछी-भालाधारियों फो आनंद से भर देता दि
और चालचद्र से चर्चित हो तांडव नृत्य में मप्त रहता है, तुगका जो प्रिय
होबे से! देपे ।
यह श्लोक श्लेपात्मक है श्रौर भाचते हुए मोर फो भी लगे
सकता है। मोर भी नीलकठ फहलाता है, वह शशिपघर प्रर्धात् कार्त्ति-
फेय फे ग्रानंद फा देतु हे भैर उसकी पूँछ चद्रक चित रहती है
प्र्धाव उसमे चंद्रमा के समान काने चिद्द रहते हैं।
बस, इतने ही नमूनो से प्रझट हो मायगा कि फलचुरि-फाल फे
विद्वान किस श्रेणी के थे। कल॑चुरिये बिद्वानों के आाश्रयदाता थे भर
यपेाधिद उत्तेजना देकर उनका उत्साह बढाया करते थे। गालकों मठ
को ज्यवग्या दो से शात हो जायगा कि उस समय संब्य समाल का
ध्यान किन फिन बातो पर विशेष रूप से घा।
खपष्ठस झध्याय
रजपुर जे हैद्दय
पोछे कर आए ई कि जिपुरो फी एफ शाप्या छत्तोसगट में जा
यंसो । पिलामपुर जिले म॑ प्राय गोलाकार णक पर्वतश्नेयी है जिसके
न मध्य प्रदेश का इतिहास
भीतर लगभग तीस गाँव बसे हैं। मुरूय ग्रास तुमान है जिसके कारण
पर्वत से घिरे हुए समूचे स्थल का नाम तुमान-खाल रख लिया गया
है। शित्ालेखों में इस प्राम या पुर का नास
तुम्माण लिखा हुआ पाया जाता है। त्रिपुरी के
एक संडलेश्वर ने जब से इसे अपना निवासस्थान बनाया तभी से
इसकी ख्याति हुई। यह मंडल्लेश्वर त्रिपुरी के राजा काकरुलदेव के १८
पुत्नों में से था। इस कोकरुल्ल का समय ८७४ ई० स्थिर किया गया
है। कोई सवा सी वष तक कोकरुल के बनाए हुए संडलेश्वर का वंश
तुम्माण सें चलता रहा। उसके पश्चात जान पड़ता है कि वह निर्मूल
है। गया और किसी दूसरे ने उस पर अधिकार कर लिया । तब त्रिपुरी
के राजा का एक और लड़का कलिंगराज नामक भेजा गया जिसने
केवल उस संडल ही की ठीक व्यवस्था नहीं की, बरन 'दक्षिणकोशलो
जनपदो बाहुद्वयेन अब्जित:? अपने बाहुबल से दक्षिण कोशल का जनपद
जीत लिया । “राजधानी स तुम्माण: पूर्वजेः कृत इत्यत: । तत्रस्थो ९-
रिक्षययं छुव्बैन वर्धेधामास स जियम् |” उुम्माण में जाकर उसने अपने
शत्रुओं का क्षय करके अपने पूर्वजों की राजधानी को अपना निवासस्थान
बनाया और उसके वैभव की बुद्धि की। वन्रस्थ अरिः कौन थे, इसका
उल्लेख किसी भो शित्तालेख में नहीं पाया जाता | संभव है कि ये कब्र
जाति के स्थानीय जमींदार रहे हो जिन्होंने मै[का पाकर अपना सिल्लसित्ा
जमा लिया दवा । दंतकथा के अलुसार इस ओर के जंगलों में घुख्चुस
नासक कोई सरदार रहता था जिसने राजपूतों से दस वर्ष तक लड़ाई
ली। कदाचित् यही या उसका कोई पू्वेज रहा हैे। जिसने तुम्माण पर
अपना अधिकार जमाया है और जिसका कलिंगराज ने निकाल बाहर
किया हो । कलिंगराज को 'जनपदः प्राप्त करने को प्रतिष्ठा दी गई है।
इससे ज्ञाम पड़ता है कि उसकी किसी जंगली ही से मुठभेड़ हुई जिससें
वह विजयी हुआ । अगले राजाओं के चरित्रों से जान पड़ेया कि
कलिंगराज ने समस्त दक्षिण कोशल् के जनपद की नहीं जीत डाला था,
केवल दक्षिण काशल के एक जनपद का अर्जन किया था पर तुमान-
ठुम्मास्
अषप्टस भअ्रध्याय श्र
खेल अब भी जनपद” है। कलिगराज प्रधम फोकल्ल फी सातवा
पीढी सम पैदा हुआ था झैर तत्कालीन प्रिपुरी के राजा फी सेना में,
तुम्माथ जाने के पहले, अधिकारी था। इससे स्पष्ट है कि वह प्रमा-
धारण योद्धा रहा होगा । उसको जगली शप्रुओं का भगाने से कोई
विशेष कठिनाई न पड़ी होगी। जब उसने एक बार शब्रुओ के परा-
जिद का दिया तब वद्द शातिपूवेकत अपनी राजधानी फी वृद्धि फरने लगा।
उसके पश्चातू उसका छडका फमलराज तुम्माण की गद्दी पर बैठा ।
इसके विषय में फोई विशेषता लिखी हुई नहीं पाई जाती । परतु इसका
पुन्न रत्तराज या रत्लेश हुआ | उसने नुम्माण में अनेक झाश्नवन, पुष्पोचान
झादि लगवाफर शोर चर्कशादि पनेफ देवताओं फे सदिर वनवाऊ़र उसकी
विशेष आभा बढाई। परतु इतने ही से उसे सत्ताप नहीं हुआ । उसने
वहाँ से ४७४ मील चलकर एक नवीन राजघानी स्थापित फी जिसका
नाम उसने रत्नपुर रपा। इस नथीन नगर में तुम्माण से कहीं बढ-
कर नानावर्ण विचित्र रत्नखचित नानादेव कुलभूपषित शिव-मदिर वन-
बाए जिसकी प्रशसा चारों दिशाओं में फैल गई। उसको कुग्रेरपुर की
उपमा दी जाने लगी और उसका मदन्य इतना बढ गया कि वह घतुयु गी
पुरी फहलाने लगी | स्घानीय लोगों का पूरा विश्वास है कि रत्नपुर चारों
युर्गों मे विद्यमान था। सत्ययुग में उसका नाम मणिपुर था, प्रेता में
माणिफपुर,द्वापर में होरापुर प्लौर कलियुग में बह रत्नपुर फे नाम से प्रसिद्ध
ह्मा। महासारत की एक फघा का स्थान भी यहाँ बताया जाता
है जहाँ राजा मयूरष्वज राज्य करता था। उस राजा की प्रगाढ भक्ति फी
परीक्षा भी इसी स्थान में फी गई बताई जाती है। पार उसकी पष्टि
में घुड़पेंधा शोर छष्णा्जुनी ( उन्दारज्जुनी ) तालायों का प्रमाण दिया
जाता है। फद्दते है, घुडबरंघा तालाय बह स्थान है जहाँ युधिप्तिर का
अद्वप्नेष यश फे लिये छोड़ा हुआ घेड़ा मयूरघ्वन्त के पुत्र हारा, एसके
रुक अर्जुन को हगकर, बाँधा गया था भार दूसरे तालाब फा नाम
कृष्ण हार अर्जुन फे आह्मण बनकर मयूरघ्वज्ञ को भक्ति-परीक्षा के लिये
उनकी रत्नपुर में झागमन का स्मास्क बतलाया जाता है। कहते हैं,
4
पूछ मध्य प्रदेश का इतिहास
रनपुर में ९,४०० तालाव थे । अब भी प्राय; ३०० विद्यमान हैं। इसमें
से कुछ तालाब घोड़ों:क नहत्ताने-घुलाने के काम में आते रहे होंगे । जिस
तात्ञाव के पास राजा के घोड़े वाँघे जाते रहे होंगे, उसका घुड़वेधा
तालाब नाम पड़ जाना काई विस्मय की बात नहीं है। इसी प्रकार
पैराशिक नाम रखा देने से काई ताल्लाव, उसके नाम-संबंधो कथा का
समसामयिक नहीं हो सकता। अनेक स्थलों में सैकड़ों रामसागर,
सीताकुंड, लछ॒सनसागर सी दो से। बरस के बने हुए मिलेंगे परंतु
वे राम, सीता ओर लक्ष्मण के उन्त स्थानों में विचरण करने के स्मारक नहीं
समझे जा सकते। किंतु र्नपुर की इस सहिसा से इतना ते। अवश्य
सिद्ध होता है कि महाकोशल में रत्तराज के जसाने में शोर
कदाचित् उसके पश्चात् कई पीोढ़ियों तक रत्नपुर की समता का दूसरा
शहर नहीं रहा । त्तिस पर भी रल्नेश ने तुम्माण को तिलांजलि
नहों दे दी। उसने ही नहों वरन् उसके दत्तराधिकारियों ने
पुरखों की राजधानी से अपना संबंध स्थिर रखा और जब उसे
छोड़ भी दिया तब भी वे अपने लेखों में तुन्माण को प्रधानता देते ही
रहे। ठुस्माण का नास चार शिल्ालेखों में मिलता है; रत्नपुर का
केवल दो लेखों सें पाया जाता है। सो भी इनमें से एक में दोलों के
नाम लिखे हैं ।
रत्नराज ने कोसे के संडलेश्वर वज्जूक की पुत्री नोनल्ला के
साथ विवाह किया। उनका पुत्र पृथ्वीदेव हुआ । उसने एक प्रथ्वीदेवेश्वर
नासक मंदिर तुस्माण में वसवाया श्रौर रत्नपुर सें
एक तालाब खुदवाया। उसके समय में भी
कोई उल्लेखनीय वात नहीं हुईैं। परंतु जान पड़ता है कि राज्य का
विस्तार थाड़ा-बहुत बढ़ता गया। विशेष जलजला प्ृथ्वीदेव के पुत्र
प्रथम जाजल्लदेव के समय में हुआ। उसने आदि-घराना त्रिपुरी से
संबंध ते नहीं तेड़ा परंतु वास्तव में वह स्वतंत्र हो गया और कान्यकुब्ज
तथा जश्लीती (बु'देलखंड ) के राजाओं से मित्रता कर उसने अपना सान
चढ़ा लिया ( कान्यकुब्जमहीपेन जेजाभुक्तिकभूभुजा । शूर इति प्रता-
रलपुर के राजा
अषप्टम अध्याय भर
पित्वादर्हितों मिश्रवत्थ्िया )। उस समय ये दोनों राजा बड़े प्रतापी
थे। उससे मित्रभाव का व्यवहार रसना कुछ ऐसी-बैसी बात नहों
थी। भ्रपनी राजधानी के दक्षिण की ओर का प्राय समस्त इलाका,
भी महाफाशल के भीतर पडता था और जे उसके परे भी था उसको
भी उसने जीतकर अपने अधीन कर लिया और पश्चिम की ओर बाल्ला-
घाट और चाँदा वक अपना दौर दौरा जमा लिया ! इस अर वह
गज्ञाम जिले की श्रांप्र सिसिडी, चाँदा जिले के बैरागड, बालाघाद की
लॉजी मार भडारा, तलहारो, दडकपुर, नदावली, कुबकुट इत्यादि के
मडलेश्वरों स कर लेने लगा। जाजरुदेव ने महाकाशल के 'भनेक
भागो को जगपालदेव की सहायता से अपने झधीन कर लिया । यहद्द
जगपाल, मिरज्ञापुर के दक्षिण मे, बड़ददर का रहनेवाला था घर जाति
का राजमाल था। उसके पूर्वजों ने भष्टविल्ञ ( बधेलखड का भाग ),
डॉडार ( सरगुजा ) और फोमेासडल ( पेंडरा जमींदारी ) फो सर
फर लिया धा। जगपाल ने राठ, तेरम और तमनाल को, जे। रायगढ के
उत्तर में थे, जीत लिया। उसके डर के मारे सयूरभज के लोग श्रर
साँवता जगलों में जा छिपे | जगपाल ने दुरुग, सिद्दावा, कांमेर और
बिद्रानवागढ फे दक्षिण में कादाडोंगर तक हैहदयो के अधीन कर दिया
श्रौर बस्तर के राजा का भी हरा दिया। यह वीर एक नहीं, तीन
राजाओं के काल में हैहय-राज्य की वृद्धि करता गया, जिससे दैहये
का श्रातक चारों ओर बैठ गया और उत्तर-दक्तिण अमरकटक से गोदा-
बरी तक तथा पश्चिस-पूर्व बरार से उडीसा तक उनकी दुद्दाई फिरने
लगी। यह सब काये कोई ५० वर्ष के भीतर ही पूरा कर लिया गया।
इस काल में जे तीन राजा दो गए वे थे--प्रथम जञाजस्लदेव,
उसका पुन्न द्वितीय रत्नदेव और पोता द्वितीय प्रथ्यीदेव | द्वितीय रध्नदेव
कलिंगदेश के राज़ा चोड गग को पराजित किया। इस प्रकार उसने
व्िफलिगाधिपति! कदह्लाने को माव ते जमा ली, परतु मूल घराना
ज्िपुरी के विरुद का नहीं अपनाया। यह पदवी उस घराने से सन्
११७७ इ्ैसवी ठक स्थिर रही आई, ययपि मूल गद्दी उस समय इतनों
प्र सध्य प्रदेश का इतिहास
हीन है गई थी कि त्रिकलिंग की कौन कहे त्रिपुरी हो की र्ता
करने की सामथ्य उसमें न रह गई थी |
राज्य बढ़ा देने से उसके प्रबंध का भार विजेताओं के उत्तराधि-
कारियों पर पड़ा। उन्होंने प्रचत्षित प्रथा में बहुत हेर-फेर नहों किया |
परंतु “समूहानां तु थे। धर्मस्तेव धर्मेण ते सदा । प्रकुयु: सर्वकार्याणि स्वधर्मेषु
व्यवस्थिता: ॥? इसलिये वे कई पीढ़ियां तक लड़ाई के धूम-घड़ककत से
बचे रहे और शांति के साथ भीतरी प्रवंध करते रहे । द्विवीय पृरृथ्चीदेव
का पुत्र द्वितीय ज्ञाजसलदेव, उसका तृतीय रत्वदेव श्रार उसका छतीय
पृथ्वीदेव हुआ। इन सबों के समय क॑ शिलालेख मिल्ते हैं जिनमें कोई
विशेषता नहीं पाई जाती । दूतीय पृथ्वीदेव का समय बारहवीं शताब्दी
के अंत सें पड़वा है, पश्चात् काई ऐसे प्रामाणिक्न लेख अबगत नहीं हुए
जिनसे पिछले राजाओं का ठोक पता लग जाय, केवल राजाओं की
निम्नलिखित नामावल्ी पाई जाती है।
भानुसिंह शासनकाल लगभग १५०० शैसवी
नरसिहदेव हे हे ११२१ ,,
भूसिंहदेव हा ग श्श्श्१ ,,
प्रतापसिंहदेव ु १२७६ ,,
जयसिंहदेव मी चर १३१८ ,,
धर्मसिंददेव है हि १३४७ ,.
जगन्नाधसिं ह॒देव श (३६ ,,
वीरसिंहदेव हा है १४०७ ,,
कमसल्देव 39 53 १४२६ 79
रे १) 9" (ए३६
मेहनसहाय हा है, १४५४ ,,
दादूसहाय हि पे १४७२ ,,
पुरुषेत्तमस हाय कं हे १४८७
बाहरसहाय या बाररेंद्र
कल्याणसदहाय
99 ! 3 १५१८ है|
7 १४४६ ,,
अष्सम अध्याय १३
लक््मणसहाय शासनकाल लगभग १५८३ ईसवी
शकरसहाय दर गन श्र ,,
कुमुद या मुकुदसहयाय के परे श्ध्ण्ब
बत्रिथुवनमहाय न ह १६१७ ,,
अदितिसहाय व * १६४५ ,,
रणजीतसहाय हि श श्द्श्ड »
तखतसिह ग ञ श्६८५५ ,,
राजसिहदेव *। हे शदच्रू ,
सरदारसिद्र हि हे १७२० ,,
रघुनाथमसिह ञ श्ण्श्र ,,
क्र
जिस प्रकार प्रबध क॑ लिये त्रिपुरी को एक शासा तुम्माण मे
बैठाई गई थी उसी प्रकार तुम्माण की शासा प्रोढ द्वाने पर उसकी एक डाल
खल्लारी मे ज़माई गई । रायपुर जिले मे सल्लारी
एक प्राचीन गाँव है। वहाँ और अन््यत्र शिक्षा-
लेग मिल हैं जिनसे प्रकट द्वाता है कि चादहवों शताव्दी के मध्य भे
रतनपुर फे राजा हा नातेदार लक्ष्मीदेव प्रतिनिधि-स्वकरूप खलारी भेजा
गया | उसका लड्का सिद्दण हुआ जिसने शत्रु फे १८ गढ जीव लिए।
जान पडता है कि सिहण रतनपुर फे राजा से विगड़ऋर स्वतत्न दो गया
था। उसने अपनी राजधानी रायपुर में स्थापित की । उसका लडका
रामचद्र और उसका बक्षदेव हुआ। सल्ारी और रायपुर के शिलालेयप
ब्रह्मदेव फे समय फे हँ। उनजी तिथि १४०२ व १४१४ ईसवी दै। परतु
रायपुरी शासा फी जे। नामावली पाई जाती दै उसमें न अह्मदेव का नाम
मिलता है, न उसके पुरसों फा श्रार न रतनपुरी-सूची ही मे ल्मीदेव का
नाम पाया जाता दे। तथापि उन दोनों सूचियें में मे पिझली दो-चार
पीढियों के नाम हैं वे ऐतिहासिक हैं और मुसलमानी तवारीसों मे भी
पाए जाते हैं। इसलिये जय तक अधिऋूतर प्रामाणिक नामावलियाँ
प्राप्त न हा तव तक वर्तमान वशावल्ली का सशाधन नहीं किया जा
सकता। रायपुर का वशावला केशवदेव स॑ प्रारम हातो हैं जिसका
रायपुरी शाया
रे] मध्य प्रदेश को इतिहास
समय १४९१० ईसवी लिखा पाया जाता है परंतु १४०२९ अर १४१४ के
बीच में ब्रह्मदेव का राज्य धा। यदि केशवदेव का समय १४२० मान
लिया जाय ते। अलबता काई बाघा नहीं श्राती। वह सूची इस
प्रकार हे---
केशवदास _ शासनकाल लगभग १४२० ईसवी
भुवनेश्वरदेव था ४ न््रड
मानसिं ह॒देव रे ५ रहै६३ ,,
संतेपसिं हदेव ५ ». धिष्प ,
सूरतसिहदेव हि ». ४८८ ,,
सं हा 3४ चिरफ
चामंडासिंहदेव हे ॥. हर:
वंशीसिंहदेव कर ४० ४६
धनसिंहदेव हे ७. शेर:
जेतसिंहदेव ; 3. रिंदे०३े ,,
फलेसिंहदेव हे » १४ ,
यादवदेव का ४» दिऐेरे
सामदस्तदेव १) 27 १६४० ,))
बलदेवसिंहदेव ५. ददेंएे ,
उसेदर्सिहदेव गा ७. ८५ +
वनवीरसिं हदेव ७ -अकआ9 .
अ्रमरसिं हदेव गा ». ७४९ ,
असरसिहदेव कलचुरियों का अंतिम राजा था जिसका ऑंसलेों
ने निकाज्न बाहर किया । यही हाल्ल उन्होंने रतनपुर की गद्दी के राजा
रघुनाथसिंह का किया। अमरसिंह का दिया हुझा ताम्रपत्र आरंग के
एक लेधी के पास है जिसमें संवतू ९७४२ अर्थात् सन १७३५ ६० की
तिथि श्रेकित है| मराठों ने सन् १७४० ई० मे रतनपुर पर चढ़ाई की श्रौर
रघुनाथसिंह से राज्य छोन लिया। उसी साल रघुनाथसिंद्र मर गया।
तब सथ् १७४५ में उसी वंश के मोहनसिंह को उन्होंने गद्दी पर बिठा
अषप्टम अध्याय प््पू
दिया, पश्चात् १७१८ में उसे निकाज्न दिया। श्रमरसिह से मरहठे
पहले नहीं बोले परतु सन् १७५० में उसे घेडी सी जागीर देकर धीरे
से भल्तग कर दिया। सन् १७५४ मे वह मर गया तम्र उसके लडके
शिवराजसिद्द से ज्ञागीर छीन ली गई परतु जब सन् १७५७ में भोंसलों
ने हैहय-राज्य का शासन पूरा अपने हाथ में कर लिया तथ ५ गाँव शिव-
राजसिह फी परवरिश फे लिये लगा दिए गए। इस प्रकार 'जड सूख्वी शासा
पुन सूखे पत्ते झत्त। डेढ सहृस्ताव्दिक तरुद्दि विज्षम न लग्यो फड॒त |
जग तक आदि-गद्दी ब्विपुरी का जोर बना रहा तब तक शासन-
पद्धति र्वभावत उसी प्रक्रार की चलती रही जैसी कि त्रिपुरी मे चलती
थो, परतु जब रतनपुर की शाय्ा स्वतत्न है| गई तब
पद्धति में भी कुछ अदत्त-पदल अवश्य हुश्रा होगा |
लेकिन इसका पता छत्तीसगढ में मिलते हुए लेसों से
नहीं लगता । पहले पहल रतनपुरी राजाशओ की मुठमेड मुमलमानें से
बाहरसहाय के समय में हुई। जान पडता है कि पठानों फे उपद्रव के
फारण बाहरसहाय फोसगई के दुर्गंम किले में रहने लगा था भार रतन-
पुर में किसी गे।विद नामक व्यक्ति को भ्रपना प्रतिनिधि बना दिया घा |
छडाई का स्मारक काोसगई ही में मिला घा। उसमें लिखा है कि
यबन सेना बाहरेंद्र से हार गई। पहली लडाइयो में जा कुछ हुप्ना
हा, परत में मुसलमानी दवदवा ध्थिर हे गया श्र वाहरसहाय का
लड़का कल्याणसद्दाय दिल्ली जाकर शाही दरवार मे बहुत दिनों तक
रह आया। इसी राजा के जमाने की जमावदों की एक किवाय मिली
थी जे प्राय ६० वर्ष पूर्व विज्ञासपुर के व'देवस््त के ग्रफसर को दिख-
लाई गई घो। अब उसका पता नहों है, परतु उपस्तमें कई याते ऐसी
थीं जिनसे दैहयवशी राज्य-प्रव घं का पता लगता घा। यघा, उसमें
लिया धा कि रतनपुर धार रायपुर देने इलाफ़ें से छुत्ञ मिलाकर ४८
गढ़ थे जिनसे साढ़े छ_ लाख रुपये साक्षाना आमदनों घो। उसमें
हैहयें फे करद रजवाड़ों फे नाम लिखे थे धार सेना का ब्यारा
झागे लिखे अनुसार था--
रतनपुरी राजाश्रों
की शासन पदाति
पद मध्य प्रदेश का इतिहास
खड़्गधारी २,०००
कठारघारी ५,०००
बदूकधारी ३,६००
धनुषधारी २,६००
घुड़सवार १,०००
कुल १४,२००
इसके सिवा ११६ हाथी भी थे। इतनी सेना से छुल्ल राज्य
का प्रबंध वराचर है। जाता था । ज़ब अधिक वत्त की आवश्यकता हावी
तब उसकी पूत्ति जागीरदारों द्वारा की जाती थी। यही इस राज्य का
कसजेर पाया था । जब तक जागीरदार या करद राज्यों पर पूरा
आतंक बना रहा तब तक ते कुछ गड़बड़ नहीं हुई, परंतु ज्योंही रक्षित
राज्यों या जागीरदारों में से किसी ने अपनी सत्ता कुछ दृढ़ रूप से जमा
ली त्योंही मामला हाथ के वाहर निकल गया श्रार राजा शक्तिददीन हा
गया | अंतिस राजा ते इतने वलहीन और आलसी हा गए थे कि
शत्र के आते ही उन्होंने सिर नवा दिया और १,५०० वर्ष के स्थायी वंश
के यश की सिट्टी में मिला दिया। एक अँगरेज अफसर ने अतिस राजा
रघुनाथसिंह के कापुरुपत्व का हाल सुनकर अपनी बंदावस्त को रिपोट
में यह राय दर्ज कर दी है कि हैहय समान नामी नरेखश्वरों फे अंतिम
वंशज का हाथ मे तलवार लेकर रणभूमि में मर जाना श्रेय था न कि
विटली के समान दबकर प्राण की रक्षा करता । यद्यपि रघुनाधसिंह बूढ़ा
और वलहीन हा गया था तिस पर भी उसको वंशोचित ओर क्षत्रियो-
चित काये से मुह नहीं साइना घा। उसने निष्कलंक वंश सें उत्पन्न
हाकर अपने मुख पर सेव के लिये कालिमा लगा ली ।
नंवसम् बचधच्यय
हाकाशल के छोटे-माटे राजा
रतनपुरी ऋलचुरि शाखा का इतिहास लिखते समय कई छोटे-
माट राजाओं का जिक्र आया है जिनका जीतकर उन्होंने अपने अधीन
नवम अध्याय १७
कर लिया घा। इनमें से कई प्रतापी घराने थे श्रार किसी किसी का
राज्य तो अभी तक स्थिर है। इसलिये यहाँ पर उनका छुछ वर्णन कर
देना योग्य जान पडता है। जाजतलदेव के सन् १११४ ईसवी के
शिल्लालेस में बहुत से देशों के नाम लिसे दै जहाँ के रृपति उसका
स्वामित्व स्वीकार कर उसको कर देने लगे थे। सेद का विषय दै कि
यह शिलालेख खडित हो गया दै इसलिये पूरी नामावली, जैसी कि मूल
में रही दागी, प्राप्य नहों है तथापि नव देशो के नाम साफ पढे जाते
हैं। आदि मे एक ही नाम गुम हो गया सालूम पडता है जो श्लोक
फे अमुक्रम से जान पडता है दो दी अक्षरों का रहा होगा । इसलिये
निम्न उद्धरण में प्रनुमान से गुमनाम की जगह “ल्ाढा!” भर दिया गया
है। श्लोक यो है--
[ ल्वाठा दक्ति ] ण काशलाघसिमिडी बैरागर्म् ्ञाज्जिका,
भाणारस्तलहारि दण्डऊपुरम्॒ नन्दावली कुक्कुट ।
यस्यैशां हि. महदीपमण्डलश्ता मैत्रेन केचिस्मुदे,
कान्यन्धन्द क्लिप्तमू ददु ॥
इस श्लेक फे आदि ही में ज्ञाढा कल्पित नाम के रस देने का
कारण यह है कि रतनपुर स काई वीस मील आग्नेय का काटगढ नामऊ
किला है उसमें एक शिल्ालेग रलदेव द्वितीय फे समय का मिला दे ।
उक्षमे लिखा दे कि बहाँ पर एफ वैश्य राजा देवराज नामक था जे रत्न-
देव के पूर्वजों का सडलेश्वर धा। उसका पाता दरिगण कलचुरियों
का परम हितैपी और सद्दायफ था | उसके लडके बल्लभराज ने लद॒हा
और गौड़ देश पर धावा किया और सप्ताश्व ( सूर्य ) के पुत्र रेवत का
मदिर बनवाया, वल्लभसागर नामक तालाब खुदवाया और एक भारी
वाह्याज्ञी अर्धात् घुडसार चनवाई। डाक्टर देवदत्त भाडारकर ने अनु-
मान किया है कि यह लद॒हा या लद्ददा देश दक्सिन में हैं जिसका
जिक्र वराहमिहिर ने घृहतुसद्विता में अध्मक आर कुलूत के साथ किया
हूं, पर तु हरिगणश सरीसे छोटे स सडलेश्वर का, जा एक घुट्सार बनवाने
में अपनी प्रतिष्ठा समझता था, उतने टूर दक्षिणस्ध लद्ददा पर घावा करना
प्८ मध्य प्रदेश का इतिहास
असंभव सा प्रतीत होता हैं। लेखक के मत के अनुसार लद॒हा था
लड़हा, लाड़ा या ल्ाढ़ा का अपश्रश है जिसका वर्तमान रूप लड़िया
या ज्वरिया हा गया है। छत्तीसगढ़ में जहाँ उड़िया और हिंदी वेलियों
का मिल्लाप होता है वहाँ पर उड़िया बोलीवाले देश का डड़िया और
हिंदी वेलीवाले देश का लड़िया कहते हैँ । यह स्थल कोटगढ़ से
बहुत दूर नहों है। उसी के परे बंगाल देश लगा हुआ है, जिसे पहले
गाड़ कहते थे। इससे जान पड़ता है कि वल्लभराज ने कोटगढ़ के
पूव की ओर धावा किया और लाड़ा या लरिया वतंमान रायगढ़ रज-
बाड़े को जीत लिया। राजिम के सन् ११४५ के लेख में वर्गन है कि
जगपालदेव ने रायगढ़ के उत्तरस्थ राठ, तमनाल व तेरस की जीतकर
हैहय राज्य में मिला लिया, परंतु रायगढ़ के दक्षिणी भाग का जिक्र
कहीं नहीं पाया जाता | कारण स्पष्ट है। जब उस भाग की हरिगण ने
जीतकर हैहय राज्य में शामिल्ष करवा दिया था तब जगपालदेव उसको
अपने वंश की ऋृतियों में कैसे शामिल कर सकता था ९ जान ते ऐसा
पड़ता है कि लाड़ा या लद॒हा तेरस, तमनाल आदि जीते जाने के
पहले ही हैहयाधीन हा। चुका था इसलिये उसका नाम जाजल्लदेव के
करद राज्यों सें शामिल रहना असंगत नही है।
दूसरा करद राज्य दक्षिण काशल लिखा है, जिससे ज्ञात होता
है कि बारहवों शताब्दी में यह नाम एक संकुचित मंडल का द्योतक था।
आस सैर से दक्षिण काशल नाम सारे छत्तीसगढ़ के लागू था परंतु
उसके मध्य में कोई खास इलाका रहा होगा जो इस नाम से प्रख्यात
था ओर जहाँ का राजा हैहयाधीन है। गया था। इसमें कोई अचरज
की बात नहों समझ्तनी चाहिए, क्योंकि वरतेमान नामरावली में भी इसी
प्रकार के एक के अनेक अर्थ प्रसंगाजुसार होते हैं, यथा नागपुर जिला
कहने से इन दिनों एक करोब चार हजार वर्ग मौल के ज्ोत्र का बोध
होता है जे नागपुर डिवीजन का प्राय: छठॉ अंश है। दक्तिण काोशल
का विशेष संडल दक्षिण कोशल देश का इसी प्रकार एक छोटा हिस्सा
रहा हेगा। अनुमान से जान पड़ता है कि यह भाग रायपुर जिले के
नवम अध्याय प्र
मध्य में रहा होगा क्योकि उसके आसपास के भागों के प्राचीन नाम
मिलते है, उसी भाग का कोई विशेष नाम नही पाया जाता |
तीसरा मडल आप्र सिमिडो है। फोई कोई इसे प्रथरर् प्थक्
कर आंध्र श्र्तग श्र सिसमिडी श्रलग गिनते दे। शब्द के देनो अ्थे यानी
आंध्रदेशरथ सिसमिडी या आंध्र और सिमिडो सार्थक दे, परतु एक बात
यह है कि त्रिपुरी के राज्ञा यश कर्णदेव ने आंध्र देश को राजा का जीत-
कर अपने प्रधीन कर लिया था। रवनपुरी राजाओं ने त्रिपुरी से विरोध
नहीं किया फिर त्रिपुरी का फरद राज वे अपने रजवाडो में कैसे
शामिल कर सकते थे ? इसी से जान पडता है कि यहाँ पर ्रांध्र
सिमिडी का प्र्थ श्रांध्र देशस्थ खिमिडो है, न कि शरंध्र श्र सिमिडी |
सिमिडी ( वर्तमान नाम किमिडो ) गोदावरी के उस पार गजाम जिले
में बडी भारी जमोंदारी है। यहाँ फे जमादार उडीसा के राजाशों फे
वशज्ञ बतलाए जाते हैं। पहले वे यहाँ के राजा थे। पूरी किमिडी
का चोत्रफल ३३०० वर्ग मील से अधिक है परतु कोई २७०० वर्गमील
में बडा सघन जगल लगा दै। अब किमिष्ठो के तीन विभाग है। गए
हूं जे परल्ता, पेदा फ्रौर चिन्ना किमिडी के माम से प्रसिद्ध हैं।
चोधा मडल बैरागरम् वर्तमान वैरागढ है। यह चाँदा जिले में
विद्यमान है। इसका दूसरा प्राचीन नाम वज्ाकर था, क्योंकि चहाँ
पर बन्र भ्र्थात् हीरे की सामें थों। इससे यद्द न समझ लेना चाहिए
कि बैरागरम् प्राचोन नाम नहीं है। उसका नाम इसी रूप में तामिल
काध्य शिलप्पदिगारम् में सिलता दै। यह काव्य सन १९० और
१४० ई० फे म्रष्य सें लिसा गया था। बज्ञाकर फे रूप में इसका जिक्र
नागवशो राजा सेमेश्वर के शिलालेस में अभ्राता है। उसमे रतनपुर
का भी जिक है। जाजब्नदेव फे लेख में सेमेश्वर के पछाडते का भी
उस्लेस है। सामेश्वर फे लेय से विदित द्वाता है क्रि सह्ाकाशल में
छ माफ छियानवे गाँव थे जे उसने छोन लिए थे, परतु जानल्नदेव ने
इस धहदगी का फल्न उसे चसा दिया। वह रण में सेमेश्यर फी अ्रसख्य
सेना के। यम-सदन पहुँचाकर स्वय उसको बाँध लाया। सोमैश्वर का
६० सध्य प्रदेश का इतिदास
लेख वहुत ही संत्तिप्त अवध्या में है, नहों ते उससे बहुन कुछ
ऐतिहासिक पता लगता। वर्तमान दशा में भी उसमें लांजी,
रतनपुर, लेग्णा, वेंगी, भद्रपत्तन, वत् ओर उड़ के नरेशों का जिक्र
मिल्नता है। इनमें से कोई काई जाजर्ल के करद मंडलेश्वर थे, जैसा
कि क्रमशः: ज्ञात होता ज्ञायमा |
लीजिए, पाँचवाँ मंडलेश्वर ही जाजरलीय लेखानु धार लाब्निका
या लॉजी का अधिपति था जैसा ऊपर अभी वर्गान कर आए हैं ।
लॉजी का नाम सेामेश्वर क॑ लेख में भी मिलता है। लॉजी वाला-
घाट जिले में हैँ । वह प्राचीन काल में दस जिले या इलाके की राज-
धानी थी | श्रव भी वहाँ पर अनेक प्राचीन खेड़हर श्रौर शिलालेख
माजूद हैं। शित्लालेख बहुत घिस जाने से पढ़े नहीं जाते |
लॉजी से लगा हुआ भागणारा वरतेमान भंडारा है। वहाँ अतल्लग
संडलेश्वर था जे जाजल्ल का कर देता था |
अब जाजन्न का प्रशस्तिकार पाठक का रायगढ़, रायपुर, गंजाम,
चाँदा, बालावाट और भंडारा की सेर कराकर रतनपुर के पाद-तल में
वलद्दारी का वापस लिए जाता है और पश्चात भूलभुलैयाँ में डाल
देता है। वह कहता हैं कि दंडकपुर, नंदावली और कुक्कुट मंडल्लों
का भी अवलोकन कर आओ पर अब पता ही नहीं छगता कि थे स्थान
थे कहाँ। छत्तीसगढ़ से फँला हुआ अरण्य पहले दंडक नाम से
प्रसिद्ध था । जान पड़ता है कि इसके मध्य में कोई पुर बसा था
जिसका नाम दंडकपुर था। पाठक इसकी खेज करें। प्रयत्न करने
से कदाचित् पता लग जाय | यही बात नंदावली और कुक्कुट की है |
कुक्कुद के पर्यायवाची 'मुर्गी ढाने? ते बहुत से हैं परंतु उनमें से कान सा
प्राचीन संडल्तश्वर का पुर था, यद्द लेखक की अभी तक मालूम नहीं
हुआ। इसका पता कदाचितू छत्तीसगढ़-गौरव-प्रचारक मंडली द्वारा
लग सके। हाँ, एक और स्थल का जिक्र सेमेश्वर के लेख में है जिसका
भ्रध लेग्धा वर्तमान लवण या लवन हा सकता है। यह रायपुर के
पूर्वीय इलाके का नाम है। प्रसंग-चश यह भी बता देना उचित जान
नवम अध्याय ६१
पडता दी कि सोमेश्वर के लेसवाले बेंगी, भद्रपत्तन और उड़ ऋरमश
गेददावरी प्र कृष्णा मध्यस्थ इलाफा, भाँदक और उडोसा हैं ।
जगपालदेव फे राजिमवाले लेप फा जिक्र पहले कई बार भरा
चुका है और जिन देशों के जीतने का उत्लेस उसमे है उनके नाम भी
बतला दिए गए हैं। वहाँ के राजाओं का विशेष हाल प्राष्य नहीं है,
क्योंकि राजाओं के नाम या उनके वशों का पता उस लेख में दिया
नहों गया । जगपाल्त के पुरसों ने प्रधम भट्टवेल और विहरा फो सर
किया। भट्टविल, जे। भटघेडा भी कहलाता थां, बघेजलसड का प्राचोन
नाम कद्दा जाता है। उस जमाने से भट्टविल की सीमा कहाँ तक थी,
इसका कहाँ पता नहीं लगता । निदान वह वर्तमान पूरे बधेलसड भी
सीमा नहीं रही होगी, क्योंकि वधेलखड ही कलचुरियों का आदि-
स्थान माना जाता है। फदाचित् वहों से वे त्रिपुरी गएथे। वध से
प्राचीन बघेलसड में त्रिपुरी के कलचुरिये। का अधिकार बहुत पहले ही से
रहा होगा। फिर जगपाल सरीखे माइलिक उनकी कैसे हर। सकते थे ९
इससे यही सिद्ध होता द कि वधेलसड के किसी कोने में भट्टविल
फोई छोटी रियासत थी जिसफा जगपाल के पुरखो ने जीतकर रचनपुर
फे ऐैहयें। के जिम्मे कर दिया। विहरा भी ऊदाचित् उसी के निकट
फोई छेटी सी रियासत रही हागी।
जगपाल ने राठ, तेरम और तमनाल तीनों फे नाम लिसे हैं। ये
रायगढ के उत्तर में ननदोक नजदीक स्थान हैं जे फदापि बढ़े रजवाडे
फभी न रहे होंगे। सभव है कि इनके छोटे छोटे स्वतन जगली राजा रहे
हैं । उन तौनों का जगपाल्न ने जीव लिया और अपनी मद्दिमा बढाने
के तु उन तीनों के नाम सुदवा दिए। मांडलिकों में भी ता मेद होता
है। कोई कोई द्ैदराबाद के बरावर इद़त् भार कोई चुटकी में समाने
योग्य छाटे (सक्ती! के समान होते है, परतु उनकी गणना ते प्थक
पृथफ् द्वोठी हो है। हे
जगपाल के लेख से जान पढ़ता है कि उसने मयूरभज्ञ पर
घढ़ाई ते नहीं को, परतु वहाँ फे मायूरिक लोग उसके श्रातक से जगलो
६२ सध्य प्रदेश का इतिहास
में छिप गए। इसी प्रकार विज्ञासपुर जिले के जंगली भाग में रहने-
वाले साँवता लोग पहाड़ों को भाग गए । जगपाल 'तलहारी को
द्वितीय रस्तदेव के समय में जीतने का दावा करता है; परंतु यह संडल्ल,
जे। दक्षिण की ओर रतनपुर से बिलकुल घटा हुआ था, रत्नदेव के पिता
जाजनब्नदेव के करद राज्यों में शामिल है। संभव है कि रत्नदेव के
समय वहाँ का राजा बिगड़ उठा हो, तव जगपाल ने उसका दमन
किया हो । जब तक अन्य कोई प्रमाण न मिलते तब तक इसका निशेय
करना कठिन जाब पड़ता है।
अभी तक जिन स्थानों के विजय का वर्णव किया गया है वे
रतनपुर के आसपास उत्तर, पूत्रे और दक्षिण के संडल थे। अब जग-
पाल पश्चिस को बढ़ता है और सिंदूरमॉगु अथवा सिंदूरागिरि वत्तेमान
रामटेक का सर करता है। इससे जान पड़ेगा कि रासटेक का मंडले-
श्वर भंडारा के संडलेश्वर से सिन्न था। पृथ्वीदेव के जमाने में जगपाल-
देव ने अपना अड्डा ठुग में जमाया । दुर्ग बढ़ा प्राचोन स्थान है। वहाँ
पर सिले हुए लेखों से जान पड़ता है कि किसी शिवदेव नामक शेव
राजा ने उसे वसाया था और उसका नाम शिवपुर रखा थां। जब
वहाँ पर किला बन गया तब उसका नास शिवदुर्ग चलने लगा।
कालांतर में उस नास का प्रथम भाग कठकर केवल ढुगे रह गया । जग-
पाल के समय में दुग में कान राजा था, इसका परिचय ते नहीं दिया
गया; परंतु जान पड़ता है कि वहाँ के प्राचीच राजा का हटाकर जग-
पाल ने राजघानी का नास अपने नाम से जगपालपुर प्रसिद्ध किया था,
यद्यपि वह उसकी मत्यु के वाद चल नहीं सका और पूर्व नाम का प्रचार
पुनः हा गया । जगपाल दुर्ग के दक्षिण का बढ़ा और उसने सरहरा-
गढ़ वत्तमान सारर को ले, मचका सिहवा ( वेत्तेमान मेचका सिहावा )
की अपने अधीन कर लिया और असरबद्र या अ्रमरकूढ ( वर्तेमान
बस्तर ) के राजा का हरा काकरय ( वर्तमान कांकेर ) कांतार कछुसुस-
भोग और काँदाडोंगर को छीन लिया। कॉदाडोांगर बिंद्रानवागढ़
जमीदारी के बिलकुल दक्षिण मे है। इस प्रकार उसने रायपुर जिले
नवम अध्याय दर
के पूर्व और दक्षिण का भाग हहयों के राज्य में मिला दिया। इस
वर्णन में यद्ध बात खटऊती है कि प्रथम जाजलनदेव फे समय मे जब
दूरस्थ किमिडो कर वैरागढ के बीच के स्थान दैहय-आ्राश्नय में भा गए
ते क्या इनफे दीच के रजवाडे सरवतत्न ही छोड दिए गण थे ९? यह ते
निर्विबाद है कि ऐहय राजा पराजित शत्रु को निकालते नहीं थे, फेवल
अपना प्राधिपत्य स्वीकार फरा लेते थे। सभव है कि जानर्लदेव के
प्रताप फो देखकर चाँदा और रतनपुर के मध्यस्थ राज-बद ने शैेहयों का
आधिपत्य मान लिया हा पक्ौर उसके पोते के समय में अवसर पा वे
फिर स्वतन्न दो गए हों। जगपाह्नदेव का दैददय-फोपष घढाने की चिता
थी इसलिये यह भी सभव है कि सिहावा झादि की ओर फे मांडलिको
के विराध न करने पर भी जगपाल ने कुछ बहाना बन्ाफर उनका राज्य
छीन लिया हो |
ऊपर सकलित दैहयें फे मांडलिका की तालिका पूरी नहीं समम्ध
छेनी चाहिए, भार म यही मान लेना चाहिए कि जिनको हैहये ने हरा
दिया वे सदैव फे लिये माडलिक बने बैठे रहे।
बस्तर के नागवशिये पर तो उनका आधिपत्य
नाम मांत्र का ही रहा। वे यथार्थ में स्वतत्र ही बने रहे और पश्रपने ही
बल पर गेदावरी के उसपार के राजाओं से लडाई लेते रहे जिसका
वर्णन भ्रागे किया जायगा। यहाँ पर हैदयों के निकटस्थ उन
मॉडलिका का कुछ च्यारा दे देना उचित जान पढ़ता दै जिनका
भसाम ऊपर की तालिका में नहीं भ्राया। विल्लासपुर जिले से लगी
हुई कवर्धा रियासत के चारा नामऊ मम में एफ सदिर है जिसको अब
सेंडवा सहल कहते हैं। वहाँ एक शिलालेस है जिसमें नागवशों २४
राजाओं फी वशावली दी गई है। यह लेस १३४७ ई० का है। इससे
स्पष्ट है कि इस चश का मूल-पुरुष दसवीं शताब्दी के लगभग राज्य
फरता रहा द्वोगा। जिस राजा ने यह लेख खुदवाया है उसने दैहय-
राजकुमारी अविकादेवी से विवाह किया घा। जान पडता है कि इस
इग फे राज़ा पहले ही से दैहयों के मॉंडलिक द्वो गए थे, इसलिये इनके
कबधा के नागवशी
४६४ मध्य प्रदेश का इतिहास
विजय करने या करद राज्यों सें गणना करते की आवश्यकता नहीं
समझी गई, क्योंकि इन ज्लोगों में नातेदारी चलने छगी थी। इनको वंश
की उत्पत्ति कुछ कुछ हैहयों की उत्पत्ति से मिल्नती ज्ुलती है। हेहय
अपनी उत्पत्ति अहि-हय श्र्थात् नाग पिता और घोड़ी माता से बतल्लाते
हैं। कवर्धा के सागवंशों अहि पिता और जातुकण ऋषि की कन्या
मिथिला माता से बताते हैं। इनका पुत्र अहिराज हुश्ना जे इस वंश
का प्रथम राजा गिना गया है। उसका लड़का राजद्ल, उसका
धरणीधर, उसका सहिमदेव, उसका सर्वबंदन था शक्तिचंद्र, उसका
गे।पालदेव हुआ । चैरा के निकटवर्ती बेड़मदेव नामक संदिर में एक
लेख एक मूर्ति के तले लिखा मिला है जिसमें तत्कालीन राजा का
नाम गेपालदेव और संबत् ८४० अंकित है। यदिं इन दे गेोपालदेवों
के एक ही व्यक्ति मानें और संवत् का कल्चुरि संवत् गिनें तो शित्षा-
लेख के समय तक २६१ वर्षो' का अंतर आता दे जिसमें १५ पीढ़ियों
झैर १८ राजाओं का समावेश करना पड़ता है। इस अवस्था में एक
पीढ़ी की छौसत आयु १७॥ साल और राजा के शासन-काल की
प्रैसत १४ साल होती है। यदि संवतू विक्रम माना जाय॑ ते गोपाल-
द्वेव से लेकर अंतिम राजा रामचंद्र तक १६६ वर्षा' का काल होता है,
जिसके प्ज्ुसार पीढ़ी की औसत आयु ३८ साल और शासन-काछ्ल की
औसत अवधि ३१॥ साल पड़ेगी । ये दोनों बातें मेल नहीं खाती ।
एक पीढ़ी की ३८ साल शौसत श्रायु बहुत अधिक है। जाती है और
१७॥ वर्ष बहुत ओराछीो पड़ जाती है। संबतू ८४० का शालिवाहन का
मानने से पीढ़ी की शैसत २& साल और शासन-अवधि २६ साल पड़े
जाती है परंतु यह भी प्रचलित लेखे के अनुसार समुचित नहीं है ।
इसके सिवाय कवर्धा की ओर शालिवाहन के संवत् का कभी प्रचार
नहीं रहा। उस ओर के लेखों में तिथियाँ कलचुरिया विक्रम संबत् के
अनुसार डाली जाती थीं । रामचंद्र के लेख में भी यद्यपि विक्रम के नाम
का साफ-साफ संकेत नहीं है परंतु उसमें इतना लिखा दे कि संवत् १४२६
में जय नाम संवत्सर चल रहा था तब वह लिखा गया। गणना करने
नवम अध्याय ६४
से स्पष्ट है कि जय नाम सबस्सर विक्रमीय १४०६ साल में पडा था।
इस कारणों से यहीं से नागवशावली में शक्रा उत्पन्न शे जाती त्ते
जिसका निवारण आगे चलकर किया जायगा।
गेपालदेव का लडका नलदेव कौर उसका भुवनपाल हुआ।
इसके दो पुन्न--मीत्तिपाल और जयत्रपाल--हुए, जे एऊ के पीछे एक गद्दी
पर बैठे । जयत्रपाल के मरने पर उसका लड़का महिपाल्न राजा हुआ,
फिर उमका पुत्र विषम्पाल्ल, फिर उसका पुत्र जन्हुपाल, फिर उसका
जनपाल् या विजनपात्त श्रौर फिर उसका पुत्र यशोराज्ञ राजा हुआ |
यशे(राज यशस्वी राजा जान पडता है, क्योंकि इसके समय के
लेस ककाली और सहसपुर में पाए जाते हैं। एक लेख में उसकी
तिथि स्पष्ट रूप से ऊलचुरि सवत् €३४ फार्तिक पूर्णिमा बुधवार लिखो
है। कल्नचुरि सबत् के अनुभार हिसाब लगाने से यट ठीक सन् ११८२
६० के १३ अक्टूबर बुधवार का पडयी दै। गोपालदेव शौर यशोराज
के बीच ८ पीढियाँ और <€४ वर्षो का अतर पडता है जिससे पलौसत
आयु १२ वर्ष हो रह जाती है। शासनं-प्रवधि चाहे जितनी छोटी दै।
जाय परतु पीढी की आयु इतनी ओछी दहैा। नही सकती | इससे सिद्धांत
यही निऊूलता है कि वशावली लबी चेडी करके नागवश फी प्राचीनता
का महत्त्व स्थापित करने का प्रयत्न किया गया है कलर कुछ कह्िपित
नाम घुसेड दिए गए हैं या नांता बताने में गलती हुई है।
यशोराज का पुत्र कन्हडदेव या वल्लमदेव था। उसका लक्र॒मवर्मा
हुआ जिसके दे पुत्र थे--एक सड्गदेव श्र दूसरा चदन | गद्दी खड़गदेव
के मिक्नी । उसके पश्चात् उसका लड़का भुवनेकमत्ल उत्तराधिकारी
हुआ, फिर उसका लडका अज्ठुन, फिर उसका भीम और फिर उसका
भोज क्रमश गद्दी पर चैठे | भोज के निस्सतान होने के कारण गद्दी चदन
की शासा को पहुँची और उसके लद्मण नामक प्रपौन का मिली | इसी
लच्भण का लड़का रामचद्र था जिसने शिवालैस लिसवाया |
गोपालदेव श्र यशोराज की तिधियों के आधार पर अनुमान
किया जा सकता है कि कवर्धा के नागवशियों का आरभ दसवों शताब्दी
थः
६६ सध्य प्रदेश का इतिहास
में हुआ और कुल पीढ़ियाँ २९ के बदले १८ ही हुई' | जान पड़ता है कि
गोपाल और यशोराज के सध्यस्थ राजाओं के रिश्ता बताने में कुछ भूल हुई
है । संभव है, गोपालदेव और नलदेव पिता पुत्र न हाकर भाई भाई रहे
हों। इसी प्रकार महिपाल व विपसपात्त और जन्हुपाल और जनपाल का
नाता रहा हो, तव ते गोपाल और यशोापात्त के वीच फी तोन पीढ़ियाँ
घट जाती हैं जिससे पीढ़ी की औसत आयु १२ से बढ़कर १७ वा है।
जाती है। पुन; सहसपुर के लेख में यशोराज की रानी का नाम
लक्ष्मादेवी और राजपुत्रों का सेजदेव व राजदेव लिखा है, परंतु वंशा-
वली सें कन्हड़देव या वललभदेव बतत्लाया गया है और उसका पुत्र
लक्ष्मवर्मा लिखा है। यद्यपि यह असंभव नहीं है कि यशोराज के
तीसरा पुत्र हुआ हा जिसकी गद्दी सिल्ली हो तो भी यह भल्लक उठता है
कि नामें में कुछ गड़बड़ द्वे गई है। यदि कनन््हड़ और लक््म भोज
और राजदेव के दूसरे नाम रहे हों ते। कन्हड़ भैर लक्ष्म को पिता पुत्र
न सानकर भाई मानना पड़ेगा। ऐसा करने से यशाराज १९वीं
और अंतिम राजा १७वीं पीढ़ी में पड़ेगा । इससे पीढ़ी की श्रायु का
भेंगड़ा सिठ जायगा । गेपालदेव अहिराज से छठी पोढ़ी में हुआ,
जिससे जान पड़ता है कि इनके बीच प्राय: से वर्ष का अंतर रहा होगा,
इसलिये कवर्धा के नागवंश का आरंभ दसवीं शताब्दी के अंत में मानना
अलंगत न हागा। एक शित्ालेख में यशाराज की पदवी महाराणक
लिखी हे, इसलिये इस वंश के मांडलिक होने में संशय ही न रहा ।
कवर्धा के राजबंशी रतनपुर के निकट होने के कारण अधिक
दबे रहते थे । परंतु दूर के मांडलिक प्राय: स्वतंत्र से रहते थे। इनमें
से एक कॉकेर के राजा थे। कॉकेर रायपुर
से ८० मील है इसलिये वह रतनपुर से इसके
दूने से अधिक बैठेगा। कॉकेर पहले बड़ा राब्य था | उसमें पहले
धसतरी तहसील आऔर कुछ भाग बालोद तहसील का शामिल था।
काँकेर में सेमवंशी राजा राज्य करते थे जिनके कई शिलालेख
वे ताम्नपत्र सिल्ले है परंतु उनमें सबसे प्राचीन तिथि ११७२ ई०
कोकेर के सामवंशी
नवम श्रष्याय चूक
की मिलती है, कितु ऐदेय सेनापति जगपालदेव ने काँकेर को सव्
११४५ ईमवी फे पूर्व ही जीत लिया घा।
सन् ११८२ ईसवी में काँकेर का राजा फर्यराज था । उसके पिता
फा नाम बेपदेय, दादा का व्याघराज भौर परदादा का सिहराज था।
पहले राजधानी सिद्दावा में थी सिहावा का नाम सिद्दराज ही के नास
पर घराया गया था| जगपालदेव ने कदाचित् कर्ण फे पिता वेषपदेव की
हराया देगा, क्योंकि उसने श्रपनी विजय सूची में सिह्दावा और कॉँकेर
देने के नाम लिखे हैं। बेपदेव फे तीन लड़के थे--फर्षराज, सेमराज
पौर रणफेसरी । इनको अपने जीवे जी उसने सिहावा, काँकर श्र पाडी
का शासक वना रसा था। यदि ये भिन्न न समझे जांते तो जगपाल का
सिद्दावा भर काँकेर देनों के लिसने की आवश्यकता न पडतवी । जगपाल
गहरे सबंध की खोज में नहीं रहता था, वह ते! अपने विजय की लबी सूची
बनाकर दिसाना चाइता था, इस लिये जिन इलाके में कुछ भी मेद मिलता
उनको अलग इलाफा या मडल फरार देकर नाम दर्ज कर लेता था । वशा-
बली के भ्राधार पर सिद्दराज का समय १०६४ ईसवी के लगभग पदता
है। कर्णराज के बश में जैत्रराज, सेमचद्र क्ै।र भानुदेव हुए । भानुदेव
के समय का एक लेस मिला दे जिसकी तिधि १३२० ईमवी में पडती है ।
भानुदेव का पिता काँकेर ही जाकर जम गया धा। सेमचद्र फा लडका
पपराज पाडी में रहता घखा। उसके दे ताम्रशासन मिले हैँ जिनकी तिथि
सन् १२१६ ६० में पडती है। पाडो का पता नहीं लगता, परतु पंपराज
काँकेर में मी जाकर रद्दा करता घा । उसने एक दान फॉकेर-समावास
झौर एक पाड़ी-समावास से किया था | इससे जान पडता ऐ कि उसकी
मूल घराने से मैत्नो थी ध्यौर फाँमेर का राज्य इनके बीच विमक्त नद्दा
ह॒प्ना था | इसी लिये बद् वश समूचा झयौर वलवान् बना रद्या | फॉकेर के
सामवशी राजा दैहयें फा आधिपत्य मानते रहे, परतु जान पडता है वे कुछ
स्वेच्छाचारों घे। उनके लेखों में किसी मे शक सवत् कौर किसी में फलचुरि
सयत पाया जाता है। फर्यराज और भानुदेव फे शिलालेसों में शफ़ सवत्
झीरपपराज फे साप्रगासनों में फलउुरि सवस् का उपयेगग किया गया है ।
द््प मध्य प्रदेश का इतिहास
दशस शअच्याय
नागदंशी
काँकेर के परे वध्तर का राज्य है। इसका प्राचीन नाम चक्रकूट
या अ्रमरकूट था। यहाँ पर नागत्रंशों राजा राज्य करते थे। इनकी
का विरुदावली से इनके गोरव का कुछ पता लग जाता
बस्तर के नागवशी लक हि
है। जिस सोमेश्वर से हेहयों की मुठभेड़ हुई
उसका विरुद था सहसखफणशासाणिनिकरावभासुर नागवंशोद्धव भोगा-
वतीपुरवरेश्वर सबत्सव्याप्रल्माव्छझब काश्यपगोत्रप्रकटी कृत विजयघेषण-
ल्ब्ध विश्वविश्वंभर परमेश्वर प्रमभट्रारक महेश्वरचरगाकलजकिअ-
ल्कपुलपिखरितभ्रमरायमाणयसत्यहरिश्चन्द्रशरणागतवज्नपजर प्रतिगण्ड-
मैरव श्रीसद्रायभूषणः महाराज सेसेश्वरदेव: |”. कहीं कहीं
पर विक्रमाक्रान्त सकलरिपुद्धपतिकिरीटकोटिप्रभामयूखयद्योतितामल-
चरणकमलचक्रकूटाधीश्वरः भी लिखा हुआ पाया जाता हे।
यद्यपि इन विरुदों में बहुत सी श्रत्युक्ति है तथापि इस प्रकार के अभि-
मान रखनेवाले राजा किसी के मांडलिक बनकर नहीं रह सकते थे,
इतनी बात ते स्पष्ट ऋलक पड़ेगी । नागवंशियों के अधिकार में कई
मांडलिक ही नहीं वरन् महासंडलेश्वर थे। उनमें एक अम्मगाम के
महाराज चंद्रादित्य थे जे चेत्लराज करिकाल के वंशज थे।
नागवंशी प्रतापी राजा थे। उनका एक बराना हेदराबाद के
यलवरगा में राज्य करता था। इन ल्लोगों की मूल राजधानी भेगावती
में थी, परंतु उसका अभी तक पता नहीं लगा कि वह कहाँ थी। थे
लोग छिंदक था सिंदवंशो भी कहलाते थे। इनकी कई शाखाएँ हो। गई
थीं; जिन्होंने अपने लांछन और ध्वज-पताका या केतन अलग अल्लग प्रकार
के बना लिए थे | व्यात्न सब घरानों के लांछनों में दिखलाया जाता
था, क्योंकि उनकी उत्पत्ति की कथा में अहिराज द्वारा मूल पुरुष को
वाघिनी का दूध पिल्ाकर जिलाए जाने का जिक्र है। बस्तर में इनकी
दे शाखाएं थीं। एक का लांछन सबत्स व्यात्र और दूसरी का धलुर्व्याश्र
देशम अध्याय ६
था। पहली शास्रा के ध्वज का ते विवरण नहों मिलता, परतु द्वितीय
का कमल कदली था। बागलकीट की शाखा का लाछन केवल व्याप्र
था, परतु केतन फशि था। इसी प्रजार हलचुर शास्रा का लाछन
व्याध मग कोर केतन नौलध्वज था |
नागवशी बस्तर में कब आकर जमे, इसका ठीक पता ते नहीं
लगता परतु इनके सबसे पुराने शिन्ञालेस की तिथि सन् १०२३ ई० में
पड़ती है जब कि नृपतिभूषण नामक राजा राज्य करता था। सन्
१०६० के लगभग जगदेकमूषण धाराव्ष का राजा हुआ। इसी का
लडका सेमेश्वर था जे। सन् ११०८ में जीता था प्रौर सन् ११११ के
पहले परले।कगामी हा। गया था, क्योकि पिछले सवत् का एक लेस
उसके पुत्र फन्हरदेव के समय का मिला है जिसमें सेमेश्वर के स्वर्ग
गमन फरने का उटलेख है। जान पडता है कि नागवश में सेमेश्वर ही
बडा प्रतापी राजा हुआ, जिसने हैटये से डाई ले उनके बहुत से गाँव
छोन लिए, वैरागढ और भाँदक के राजाओं को हराकर अपने वश कर
लिया पार गोदावरी तथा कृष्ण का सध्यस्थ देश, जिसका माम वबेंगी
था, जल्ला दिया। झाग लगाकर नाश करने की उस समय बडो चाल
थी। प्रब॒सीते बद नहों हुई। लडाइयों मे शब्रुश्नों के प्राम आग
द्वारा नष्ट कर ही दिए जाते हैं। बस्तर भी शप्रुओं की आगसे बचा
नहीं रहा। उसमें कई बार आग लगाई गई | पहले पहल चाल्ुक्या
ने सन् ८८४ व ८८८ ६० फे बीच धावा करके चक्रकूट को जला डाला ।
फिर चोल राजा प्रथम राजेंद्र ने सन् १०११ व १०१३ ई० फी बीच उसे
लूट डाला, फिर उसके बशज्ञ वीर राजेंद्र ने आक्रमण किया, फिर कुले।-
सुग ने सन १८०७० के पूर्व ही उसे ऋककफ्ोर डाला। पश्चात् बारहवों
सदी में मैसूर फे राजा विष्णुवर्धन हायसल मे अपनी तृष्णा पूर्ण की । जान
पडता दे कि सेमेश्वर ही ने बस्तर की द्वितोय शासा के नायक मधुरातक
को मारकर उसकी जड उस्ाड दी । कन्हरदेव के परचात् तीन चार
ओर नागवशी राजाओं के नाम मिलते हैं परतु उनका परुपर सबंध
फैसा था, यह मालूम नहीं पडता। सन् १२१८ ई० से जगदेऊ-भूषण
७७० मध्य प्रदेश का इतिहास
नरसिंहदेव का शासन पाया जाता है, सन् १२४२ में कन्हरदेव द्वितीय
का और सन् १३४२ में हरिश्चंद्रदेव का । दंतेवाड़ा के एक लेख में
महाराज राजभूषण पशौर उसकी वद्दित मासकदेवी का जिक्र है। वह
मासकदेवी की ओर से सर्वसाधारण की विज्ञापन है जिसमें लिखा हे
कि “चूँकि राजअधिकारी वसूली करने सें किसानों का बहुत तंग करते
हैं इसलिये पाँच महासभाओं के सुखियों ने सभा करके यह नियम
बनाया है कि जिन गाँवों से राजअभिषेक के समय रुपया आदि वसूल
किया जाता है वह ऐसे ही लोगों से वसूल किया जाय जे। चिरकाल के
निवासी हों। इसलिये सूचना दी जाती है कि जो काई इस नियम
का पालन न करेगा वह राजद्रोही श्रार मासकदेवी का द्रोही
समझा जायगा |”
नागवंशियों के लेखें में एक विचित्रता पाई जाती है। वह यह
कि जितने लेख इ'द्रावती नदी के उत्तर के हैं वे सब नागरी अत्तरों में,
संस्कृत में, लिखे गए हैं। इंद्रावती के दक्षिण के समस्त लेख तिल॑ंगी
भाषा व अक्तरां में खेोदे गए हैं। इ'द्रावती, जे बस्तर के बीचेंबीच
हेकर बहती है, उस जमाने में नागरी और तिलंगी की सीमा थी।
बस्तर के नागवंशियों का दैरदेरा तेरहवीं शताब्दी के अत तक बना
रहा। चैदहवीं के लगते ही उनका लेप हा चला शऔर वारंगल् के
काकतीयें का अधिकार जम गया। यद्यपि बस्तर में लूठ-मार बहुत
मची रहती थी तथापि नागवंशियों का शासन बुरा नहों था। भ्रजा
के स्वस्वों का विशेष विचार किया जाता था और उनके प्रतिनिधियों की
सलाह से बहुत सा राज-काज किया जाता था। बस्तर राज्य ऐसी
चेट की जगह पर था कि अन्य राजा जब चाहे तब आक्रमण कंर बैठते
थे, तिस पर भी नागवंशी अपने को सदेव सँभालते रहे और चार-पॉच
सै वर्ष तक किसी की दाल नहीं गलने दी, यद्यपि उनके शत्रु हैहय, चेल
और ह्वायसल सरीखे बड़ बड़े चपति थे। शिलाल्ेखों के पढ़ने से जान
पड़ता है कि मागवंशी-काल में वस्तर मे श्रच्छे विद्वान पंडित रहते थे ।
वह निरा सुरिया-माड़िया-पूर्ण जंगल नहीं था, जैसा कि इन दिनों है ।
एकादश अध्याय ७
बहाँ की प्राचीन शिल्पफारी भी प्रशसनीय दै । समय का फेर है जिससे
उसने पुत्त रामचद्र के समय का रूप धारण कर लिया। पबनवास का
अधिकांश समय रामचढ़जी ने वस्तर रजवाडे ही में, पर्शशाला नामक
प्राम में, बिताया घा। यह ग्राम अभी तक वियमान है। वहीं से
सीता का दरण हुभाघा। जान पडता है, तभी से उसके माथे पर
४ब्रीविद्दान! शब्द लिखा गया। नागवशी कितने ही वीरत्वपूर्ण रहे
हों परतु उनके श्रीपूर्ण होने का प्रमाण नहीं मिलता। उनके बनवाएं
हुए काम इस कोटि के नहों हैं कि वे अतुलित सपत्ति के सूचक हो |
सकादश अध्याय
विधिध राजवंश
नवीं शताब्दी से बारहवों तक निमाड के उत्तरोय भाग में धार
के परमारें का दौरदाौरा रहा। असीरगढ के आसपास टाक राज
पू्तों के आधिपत्य की श्राख्यायिका है । असीर के
टाकों का जिक्र फेवल चद वरदाई के पृथ्वीराजरासेा।
में पाया जावा है, परतु यह स्पष्ट नहों है कि उस असीर से निमाड का
असीरगढ सममना चाहिंए। परमसारों के कई शिक्तालेस व साप्नपत्र
मिले हैं जिनमें इस जिले के कई गाँवो फे दान दिए जाने का उल्लेस
है। सबसे पुराना भेजदेव के पुत्र जयसिद्ददेव का है जिसकी तिथि
१०५५ ई० में पड़ती दै। मालवा के परमार वश का राज्य ८२५ ई०
फे लगभग भारस दाता ऐ। जयसिह उस बश का दसवाँ राजा था|
इस जिले में दे लेख देवपालदेव के समय फे मिले हैं जिनकी तिधियाँ
सम् १५१८ व ११२५४ ४० की हैं। एक जययर्मा का लेख है जिसकी
तिथि १२६० ई० में पड़ती ऐै। देवपालदेव परभार वश फक्ता बौसवाँ
परमार
७
ल््प
मंध्य प्रदेश का इनिहाल
राजा धा। उसका लड़का जयवर्मा था जा अपने भाई जैतुगिदेव के
पश्चात् गद्दों पर बेठा । इस बंश के सातवें राजा मुंत से सेदावरी तक
अपना अधिकार जमा लिया था | उसका समय १०१८ ४८ में पड़ता हैं ।
मुंन बढ़ा साहित्य-प्रेमी घा श्रार कवियों का श्राश्रवदाता था। इसी प्रकार
उसका भतीजा भेज निकलता जिसकी विद्यामिरुधि पअभी तक विस्मृत
नहीं हुई।. भाज की रानी लीजावती भी बढ़ी विदुपी घी। ये घारा
नगरी ,वर्तमान घार) में रहते थे ।
वैरिसिंह परमार, रवी घार असिनधार-वल |
वा सरस्वति-घार, घरानार किय भाज् ने .।
जी नहिं होता भाज, कविन साज्न देते फवन |
कालिदास का आज, का बढ़ावता चतुद्धिंग ॥
कठिन गशित व्यवहार, लौला कान बतावते |
पति सम विदुुपी नारि, जा न हीति लीलावती ॥
हे।ते नहिं परमार, घार क्लीत्ति किसि फैलती |
धार बिना आधार, बढ़ता किसि परमार-यश ॥
जहँ पवाँर तहें धार, घार जहाँ परमार तहें |
विन पवाँर नहिं घार, घार बिना परमार नहिं॥
निमाड़ में परसाराों का अधिकार तेरहवी शताब्दी के आरंभ तक
बना रहा, पश्चात् तेमरें आर उसके पोछे चोद्दयानों के हाथ चला
गया । सन् ११७१ ६० में जब अल्ाउद्दीन
खिलजी दक्खिन की चढ़ाई से ज्ञोटा ते उसने
असीरगढ़ का चाहानें के हाथ में पाया । उसने एक लड़के फो छाड़कर
सबकी कत्ल कर डाला । यह युवा, जिसका नाम रायसी था, चित्तोौड़
का भाग गया | इसके वंशज हरीती के राजा हैं। कहते हैं, चेद्दान
फिर एक वार लौटे। पिपलौद के राना नहीं के वंशज हैं। थे
वासांगढ़ में आकर रहे | इस किले का अब पता भी नहीं है। चाौदहवाीं
शताउदी में खेरला क॑ राजा ने इस पर चढ़ाई की। कई वर्षों तक
लड़ाई लगी रही, अंत में चोहान हारकर साजनी था पिपलोद जा बसे |
मुसलमानी श्ाक्रमण
एकांदश अध्याय ७
मालवा में मुसलमानों का अधिक्रार सच १३१० ई० में जमा | सन्
१३८७ ६० में दिललीश फे सूबेदार दिलावरसाँ गारों ने स्वतन्न होकर
श्रपन्ती राजधानी मांड ( मांडेगढ ) में जमाई और अपना अधिकार
निमाड जिले मे फैला लिया। इसी वश में सुलतान द्ाशगशाह हुआ
जिसने भर आगे बढकर सेरला का जीत जिया । उस समय निमाड
में जगलो लोग रहते थे, परतु उनकी सख्या बहुत न थी। इसी कारण
बहुत सी जमीन सालो पडी थी। इसमें राजपुत्ताना जे वहुत से ठाकुर
आकर जिले के उत्तरी भाग में बस गए।
सन् ६४१ ई० में चीनी यात्री युवानच्वाग सजुराहो गया
था। उसने लिखा है कि यहाँ का राजा नाद्याण है। इससे प्रकट
होता है कि सातवीं शताब्दी में इस ओर ब्राह्मण
का राज्य था। उसी जमाने में पडिह्टार भी बढ़े
थे। ये कन्नोज फे महाराजा हपवेर्धन के माटलिक थे। ब्राह्मणों का
दैरदै।रा हटा फी ओर चाह्टे रहा हो, परतु दमेह तहसील में-विशेषकर
दक्षिण और पूवे की श्रेर--पडिहारों ने श्रपना सिलसिला जमाया था
पर प्राह्मणराज के अस्त द्वोने तथा चदेलों के उदय होने पर भी वे
सिगारगढ की ओर बहुत दिन तक राज्य करते रहे थे। सिगारगढ फा
किला गजसिट्ट नामक पडिहार का बनवाया हुआ बताया जाता छै | पडि-
हार उचहरा के पास बहुत दिन से राज्य करते थे। उचहरा का पुराना
नाम उच्चकज़त्प था। उच्चकुल्प के महाराजा परित्राजक मद्दाराजाशनओं फे
समकालोन थे। उच्चकरप के महाराज़ाओं ने अपने शासन में अपने
वर्ण-गोघ्रादिक का परिचय नही दिया । उच्चकरुप महाराजा कल्ल-
चुरियों के मांडलिक थे। फकलचुरियाो को राजधानों त्रिपुरी ( जिला
जबलपुर के तेवर गाँव ) में थी। उनके वल से पडिद्ार बहुत दिनों
तक रुके रहे। जब कलचुरिये कमजोर द्वा गए तव पढिहारों ने चदेलों
का आधिपत्य स्वीकार कर लिया और वे मुसलमाने| के श्रागमकाल तक
उनकी छाया में राज्य करते रहे। पडिद्दारों का अतिम राजा बाघदेव
था। उसका राज्य सन् १३०७ ६० में समाप्त हा गया ।
पद्िह्दार
७ए मध्य प्रदेश का इतिहास
जान पढ़ता है कि पड़िहार लेग पद्दिने कलचुरियों के मांडलिक
थे ओर उन्होंने जबलपुर मिलते की पश्चिमी सीमा पर सिंगोरगढ़ क्
किला वनवाया घा। इस किल्ते का प्राचोन नाम
श्रीगरिगढ़ वतलाते 6 । जब चंदेलों ने कलचुरियों
र आक्रमण किया तब पड़िहारों का उनके अधोन दाना पढ़ा। चहुततर
सतीचीर सन् इसवी १३०० ओर १३०८८ के बीच की मिले हैं। उनमें
महाराजकुमार वाधदेव का राजत्वक्राल लिखा है। दमेाह लिले के
वम्हनी ग्राम में एक पत्थर सें लिखा है 'कालखराधिपति ओरीमदु हस्मीर-
वर्मदेव विजयराज्य संवत् १३६५ समये महाराजपुत्र श्रीवाघदेव भुख-
माने! जिससे स्पष्ट हैं कि बाधदेव हम्मौरतर्म के आधिपत्व में राज्य
करता था। यह हम्मीर कालंजर का चंदेल राजा घा। पाटन के
सतीचीरे मे लिखा दे 'संवत् १३६१ समये प्रतिदाार रा० श्री बाघदइव
भुव्जसानं? जिससे स्पष्ट हैं कि वाघदेव चंदेल अघवा पड़िहार था और
उसका राज्य सिंगोरगढ़, सलेया और पाटन क्री ओर फैला हुआ घा |
पहले सिंगेारगढ़ लवलपुर जिले ही में घा। पीछे से दमाह में लगा
दिया गया। चंदेलों ने दमेह के नाहटा ओर जवलपुर क्री विलहरी
में अपने कामदार रख दिए ध | चहाँ से वे दमाह शर जबलपुर जिला
के अतगत चंदेल इलाके का शासन करते थे |
चंदेलों का सन् १३८७८ ३० में दिल्ली क॑ बादशाह अलाददीन ने
राज्यच्युत कर दिया श्रार अपना स्वामित्व जमा लिया । दमोह जिले के
सलैया ग्राम के सतीचीरे में संवत् १३६७ पड़ा है आर राजत्वकाल अला-
उद्दीन का लिखा है| इस जिले में चंदेलों का इतना दारदारा रहा कि
लोग किसी भी प्राचीन संदिर के चंदेली राजा का कहते हैं | इसमें संदेह
नहीं कि चंदेलों के समय में शिल्पकारी की अच्छी उम्नति हुई और उन्होंने
पे स॑ छुदर स्थान वनवाए जिनमें खज़ुराहा के संदिराों की समता उत्तर
भारत के बिरले ही मंदिर कर सकेंगे । उनकी कारीगरी देखते ही बन
अभाता हूं। अ्ंधथकतां के उनकी देखते ही तुलसीदास की विनयपश्रिका
के पद का स्मरण आया झौर उसी के क्रम से यह पद बन गया---
सदेल
द्वीदेश अध्याय ७५
भाई कटद्दि न जाइ का कहिए ।
देसत ही रचना विचित्र श्रति समुक्ति मनहि मन रद्धिए ।
तल ते शिखर शिसर तें तल लें जहाँ जहाँ हम देरे।
तिल भर ठार दिसात कहूँ नदि जहाँ न चित्र गढेरे |
विश्वनिफाई सनहें. दिसाई शिल्पकार उत्मादे।
चदेलन फो यश -चद्विका छिटकाई सजुराहे।
विविध भाँति के चित्र भीति पर अनुपम श्रोज् समेतू
रुचिर सँवारि सुधर सदनन में घापे हरि गृपकेतू ॥
फालगति से यह “बचन्द्रात्रेयनरेन्द्राणा वशश्चन्द्र इबाज्ज्बल ।
सिलूजीवशशकेन्द्राणां अन्धेन तमसावुत ॥” होकर श्रत मे इस जिले
की झे।र का राज्य 'गोंडवशभूमीन्द्रा्ा शोघ्रमेब करतलगत ? है गया।
द्वादश श्रध्याय
मुसलमानों का प्रवेश
कुम्दारी इलाके के वीराम मैौजा बढेयाखेडे फे सबत् १३६७ के
मतीलेस से स्पष्ट है कि उस समय सुल्तान भ्रल्वाउद्दोन फा पभ्रमल घा।
यद्द दिल््लीशाइ सिलनी पराने फे ठतीय बादशाद
अलादठद्दीन मुदम्मदशाट से प्न््य नहीं हा सकता।
बढैयाखेडे से चार मीक् पर उम्दनो गाँव में एफ दूसरा सवीचीरा है।
उसमें “कालखराधिपति श्रोमदु हम्मीरवर्भदेव विजयराब्ये खत १३६५
समये मद्दाराजपुत्र श्रोवापदेव भुजमाने अभ्श्मिन् काले”? लिया है। इससे
स्पष्ट है कि झलाउद्दोन का आधिपत्य सम् १३८८ पार १३०७ ६० के
बोच में एपा। अलाउद्दोन ने दक्षिय को दूसरी चढ़ाई १३०७ में की
थो। इसम स्पष्ट ई कि उसी साल दमेह जिला या उसका भाग सुसल-
मानें के दत्तगत हुआ । झल्लाउद्रोन क अन्य बशधर्रा का नाम झभा
कहा नहों मिला परतु ग्ग्लिजियों क बाद तुगनकशादी घराये के बाद-
घुगलय
७४ मध्य प्रदेश का इतिप्तास
शाहों के गजत्व का जिक्र कई लेखों में पाया जाता है। वुगल्क
घराने का प्रथम बादशाह गयासुद्दोन था | उसके जमाने का एक फारसी
शिलालेख बटियागढ़ में मिल्ला है जिसमें उसका राजत्वकालः स्पष्ट रूप
से दज है और हिजरी सन् ७श५ अंकित हैं, जे सनू १३२४ ई०
में पड़ता है ।
गयासुद्दीन तुगल्क ते सनू १३२० से १३२५ तक राज्य किया।
इसने अपने लड़के मुहम्मदशाह का सन १३२७ ६० में चंदेरी, बदाऊँ
और मालवा की फीज़ों के साथ तिल्ंगाना जीतने का भेजा था। इसी
अवसर से जान पड़ता है कि तुगलकों का पाया इस जिल्ले में रृढ़तर
जम गया। वटियागढ़ सें एक संस्कृत में लेग्व मिन्ता है जिसमें संवत्
१३८४ ( सन् १३२८ ) पड़ा है और लिख। हैं कि सुल्तान महमूद के
समय जीव-जतुझों के आश्रय के लिये एक गोमसठ, एक वावली आर
एक वगीचा बनवाया गया। उस लेख में महसूद का जिक्र यों है--
“कलियुग सें पृथ्वी का सान्िक शकेंद्र (मुसलमान राजा ) है
जे। यागिनीपुर ( दिल्ली ) में रहकर तमाम प्रध्वी का भोग करता है
अर जिसने समुद्र पयंत सव राजाओं का अपने वश में कर लिया है
उस शूरवीर सुल्तान महमूद का कल्याण हारे ४!
दमोह जिले में तुगलकी का राज्य कब तक स्थायो रहा, इसका
प्रमाण कुछ नहीं मिल्ञता। परंतु मालूम पड़ता है कि जिस समय
सालवा के राजा ने दिल्ली से स्वतंत्र हाकर चंदेरी पर चढ़ाई की और
उसे अपने वश सें कर लिया, तभी से दिल्ली का आधिपत्य दमोह
से उठ गया |
१--“व अहद शुद गयासुद्दीन व ढुनिया बिनाई खैर मैमू गश्त मनसृत् ।
२--असितकलियुगे राजा शकेद्रो बसुधाधिप: |
येगिनीयुरमास्थाय या भुक्ते सकलां महीम् ||
सवंसागरपर्यन्त वशीचक्रों नराधिपान् |
महमूदसुरत्राणा। नाम्ना शरोमिनदतु ॥”?
ह्ादश अध्याय ७७
पद्हवी शठाब्दी के आदि में दिल्लो की ओ्रार से दिलावरसाँ
गेरी सालये का सवनर घा। यही सन् १४०१ में स्वतन्न शाह बन
बैठा | इसका लड़का शेशंगशाह प्रतापी निऊला |
उससे कालपी तक्क घावा किया, परतु चदेरी में
अपना मिलसिला जमाया या नहाों इसका उल्नेस नहीं मिलता |
द्वोशगशाह फे मरने फे दे! साल पश्चात् सालवे का राज्य सनू १४३६
इसवी में गिलजियों के अ्रधिकार में पहुँचा | ये सिल्लजी उसी काम फे
घे भिन््दोंने दिल्ली में तीम साल (सन् १२२० १३२०) राज्य किया घा
प्रौर जिनके तीसरे बादशाह ने पहले पहल दमे।ह में मुसज्ञमानी राष्य
फी जड़ जमाई थी। माक्षते का पहला सिलजी राजा मदमृदशाह
हुश्ला। फिरिशा फे इतिद्वास से शात होता है कि सन् १४२८ ६० में
चदेरी के अपने ताबे कर लिया। इसलिये उसी साल से समझना
घाद्ििण कि दमोह फा सप्रप दिल्ली फे शाही घराने से टूट गया भार
दमाह नगर को घढती फा श्रार॑भ हुप्मा, क्योंकि दिल्लीशाहो जमाने में
नयावत का सदर सुक्राम बटियागढ रखा गया था परतु गिल्जियों
ने उसके बदले दमे।ह फो गुकरर किया ।
इस जिले में महमृदशाह स्रश्तिजी के समय का फोई चिद्द पश्रभी
तक था नद्दों मिल्रा परतु उसके लडफे गयासशाह के जमाने फा एक
फारसी गशिक्षालेगय द्माष्ठ में मैजूद है। उसमें लिय्या दै कि शहनशाद्र
गयामुर निया बोदशाह फे सास सवाल मुखलिस मुल्फ ने दमाद्द किले
फे परिचमो दरवाजे फी दीयात सन् ८८४ ट्विणरसी भ्र्थातू सद १४८० ६०
में बनयाई | गधासशाह सन् १४७५४ ई७ में तरत पर बैठा था श्रार सन्
१५०० सके इसने राज्य फिया। उस ज्षमाने के फई सताचीरों में भी
ज्सकामाम दर्ज है। यथा, मरसिद्गढ़ फे निम्टस्प एक घोरे में लिया है
कि किसी घुस की रो संवद् १४४३ (सन १४८६ ६०) में 'महारापा-
पिराल मी सुध्यात गयासुट्रुनियागाह विजयराश्ये माहेगट विध्यदुर्ग
पंदरी पर्तयाने सवा हुई थी। सरसूया के पास छक दूसरे घोरे में
नामिस्गाए का नाम लिसा है और सब १४६० पढ़ा ।. नामिर-
मिलजी
जप मध्य प्रदेश का इतिहास
शाह गयासशाह का लड़का था और सन् १५०० ६० में तख्त पर बैठा
था। इसका लड़का महमूदशाह द्वितीय था जिसके जमाने का सन्
४<€?७ में दमेह खास में एक लेख मित्ला था। उसमें लिखा है
'संवत् १४५७० वर्ष साध बदी १३ सेोमदिने महाराजाधिराज राज़ श्री
सुल्तान सहमूदशाह विन नासिरशाह राज्य अस्से ( इसी ) दमाव
( दमे।ह ) नगरे, ,,दाम विजाई व सड़वा व दाई व दर्जी ये रकमें? जे
गाँव को मुक्ता में ले वह छोड़ दे। यह एक प्रक्तार का इश्तिहार है।
जब यह लिखा गया था उस समय महमूद का तीन ही साल राज्य
करते हुए थे। फिरिश्ता लिखता है, सुल्तान महमूद अन्य राजाओं की
नीति के विपरीत अपनी तलवार के बल राज्य करता चाहता घा। श्रेत
यह फल्ल हुआ कि वह मारा गया श्रार खिलजी घराने को राजत्व
से हाथ धेना पड़ा। सन् १५३० ६० में गुन्नरात के राजा वहादुरशाह
ने मालवे का अपने राज्य सें सिन्ता लिया |
चयादश शखध्याय
मुसलमानी जमाना-फारुकी, इमादशाही, वम्हनी
सन् १३७० ई० में फीरेज तुगलक ने अपने एक योद्धा सलिकर्खाँ
फारुकी का करेंद और तालनेर के परगने बख्श दिए। उस समय वे
दूसरों के अधिकार में थे। मलिकखाँ ने इनको
जीत शआऔर लूटकर वादशाह का ऐसी अच्छी
नजर भेजी जिससे उसने खुश होकर मलिक्खाँ का खानदेश का सिपह-
सालार बना दिया । इसने तालनेर के किले में अड्डा जमा लिया और
कोई १२ हजार सवारों की सेना प्रस्तुत कर आसपास का मुल्क अपने
अधीन कर लिया और मालवा के गोारियों के घराने में अपने लड़के का
विवाह करके अ्रपना पाया अ्रधिक प्जबूत बना लिया। सन् १३४७
सें वह सर गया, तव उसका लड़का गजनीखाँ, नसीरखाँ नाम धारण
कर, राजा वन बैठा। गुजरात के राजा ने उसे खान की पदवी से
फारुकी
चयोदश प्रध्याय फर्द
विभूषित किया, इसी से उसके मुल्क का नाम खानदेश रखा
गया। नसीरखाँ ने प्रसीरगढ का जीत लिया और ताप्ती फे दोनों
ओर दे। नगर बसाए। उसने एक फा नाम अपने धर्मगुरु जैनुद्दीन फे
मास पर जैनाबाद कर दूसरे या प्लौलिया शेख बुर्हालुद्दीन के नाम पर
बुर्दानपुर रपा । नसीरसाँ ने अपनी लडकी दक्षिण फे बहमनी राजा
को ब्याद दी, जिससे उसका पाया दृढ दवा! गया यद्यपि पीछे से कगडा
उत्पन्न छभ्रा श्रार उसने वरार पर चढाई कर दी परतु हार गया। तब
बहमनी राजा ने बुरहानपुर पर घावा किया। रेहनसेड में लडाई हुई, तन
नसीस्खाँ तैलग फे किले का भाग गया। बुर्दानपुर लूट लिया गया
और नसीरफाँ का महल तेड-फोडकर नष्ट कर दिया गया। छूट में
७० छाथी कार कुछ वेपखाना हाथ लगा। ये उस समय बेशक्रीमती
समझे जाते थे |
नप्तीरसाँ १४३७ ६० में सर गया तब उसका लडका मीरन
आदिलखाँ उर्फ मौरमशाह् राजा हुआ। वह चार ही चर्ष जिया।
उसके पश्चात् उसका लडका मीरन मुबारकर्खाँ
उफ मुबारकशाह चैखडो गद्दी पर बैठा । उससे
सन् १४५७ ६० तक राज्य किया, पर तु इन देनें
के जमाने में कुछ विशेष बात नहीं हुई। मीरनशाह के मरने पर उसका
छडका मीरन गनी उफ झादिलसाँ, जिसको भादिलशाह झायना या अह-
सानखाँ भी कछ्ठते थे, राजा हुआ । यह चैतन्य निकला श्रै।र उसने गेंड-
बाने फे कई राजाप्रों का अपने अधीन कर लिया और भील छुटेरों का
दबा दिया। उसने असीरगढ किले का भी बढाया। सामने का भाग, जे
मलईगढ फट्ठलावा है, इसी का बनवाया है। चथुर्हानपुर में इसने
सुधर महल श्र मस्निद बनवाई श और अपनी पदवी शाह-इ फ्वारसड
रखी भार गुजरात के राजा का कर देना बद कर दिया। इस पर
गुजरात के राजा ने चढाई कर दी, तव उसने असीरगढ फे किले फा
आश्रय लिया। गुजरात के राजा ने उसका वहाँ भी पीछा न छोडा |
परत में उसके गुजरात फे राजा की शर्तें स्वीक्षार करनी पडीं ।॥ आदिल-
मीसन श्रादिलसाँ
आर उसी सतान
ज्ञान मन्दिय मे
की खरतरगच्छीय न मन्दिए, जग9५
प्प्० सध्य प्रदेश का इतिहास
शाह सन् १५०३ ४० में निस्लेतान मर गया तब उसका भाई दाऊदसों
गद्दी पर बैठा। इसने अहमसदनगर के राजा पर चढ़ाई कर दी
परंतु असीरगढ़ की लैटना पड़ा और साज्नवा के राजा से मदद मॉँगनी
पड़ी, जिसका नतीजा यह हुआ कि उसे मांहू के राजा का स्वामित्व
सीकार करना पड़ा। दाऊदखाँ सन् १५१० ६० सें सर गया। वह
युहानपुर ही में दरूनाया गया । इसकं पूर्व उसके सभी पुरखे तालनेर में
दफन किए गए थे। उसका लड़का गजनीखाँ गद्दी पर दो ही दिन
बैठ पाया कि उसका जहर दे दिया गया। इस प्रक्नार मीस्नशाह की
शाखा में अब कोई वारिस न रहा ।
तब मीरनशाह के भाई कैसरखाँ का पोता आदिलखों उर्फ
अ्रादिलशाह आ्राजिमेहुमायू, राजा हुआ। आतलमखाँ नामक एक दूर
के संबंधी ने कगड़ा उठाया, परंतु वह निष्फत्
हुआ। आदिलशाह ने १० वर्ष राज्य किया ।
पश्चातू उसका लड़का मीरन मुहम्मद तख्त पर
बैठा। गुनरात का राजा बहाहुरशाह इसका सामा था | अपने मामा
की सहायता से उसने सालवा पर चढ़ाई करके मांइ छीन लिया और
वहीं से वह राज्य करने लगा | इतने सें वहादुरशाद निम्संतान मर गया ।
इससे मीरन मुहस्पद का भाग्य एकदस चमक्र उठा | उसकी गुजरात की
गदी दी गई । वह गुजरात की राजधानी को रवाना हुआ, परंतु पहुँचने
के पूर्व रास्ते ही में मर गया | तब उसका भाई मीरन मुबारक खानदेश
का राजा हुआ। उसने शाह की पदवी धारण की, परंतु उसे गुजरात
का राज्य नहीं मिला, क्योंकि वहाँ के अमीरों ने वहाहुरशाह के भतीजे
का अपना राजा बना लिया। सुवारक़शाह ने १५६६ तक राज्य
किया । सन् १४६१ ई० में मालवा के राजा बाजवहादुर ने सुगल्लों
हारा राब्यच्युत हाने पर चुहोनपुर का आश्रय लिया, तब मुगल्ों ने
बु्दनिषुर के आ घेरर और लूट लिया, परंतु जब सुगल-फौज घर
का लौटी तब मालवा, खानदेश और वरार के राजाओं ने मिलकर
उसे नर्मदा के किनारे घेरकर काट डाला । परंतु फारुकी वंश के
आादिलशाद आजिसे-
हुमायू और उसकी शाखा
पघयोदश भध्याय पर
पदन का आरम यहीं से शुरू हे गया। मुवारकशाह के मरने पर
इसका लढका मौरन मुहम्मद साँ गद्दी पर बैठा । इसने भी गुजरात का
तख्व हासिल करने का प्रयत्न किया और व्यर्थ प्रयास में यह झपने सारे
हाथो, तेपसाना व अन्य सामान से बैठा । उल्हे खानदेश पर चढाई
हुई भैर सारा मुल्क लूठ लिया गया। शीघ्र हो अहमदनगरवालों ने
भी चढाई कर दी भार बुर्टानपुर को घेर लिया, तब मीरन सझुहम्मद
असौरगढ में जा छिपा । वह किला भी पेर लिया गया। भ्रत में चार
लाय रुपया देने पड़े तव कहीं छुटफारा मिला। मीरन मुहम्मद सनू
१४७६ में सर गया तन उसका भाई राजा पश्रलौखाँ उर्फ आदिलशाह
गद्दी पर बैठा । इसी ने बुद्दोनपुर की जुम्मा मरिज्द बनवाई जिसमें
प्रस्वो मैर फारसी के लेसो के सिवा एफ सस्कृत का लेख है। उसमें
फारुकियों फी वशावलो लिखो है शलौर मस्निद के पूरे दाने की तिथि
विक्रम, शर्न और ह्विजरो सबतों में दी है जे। ५ जनवरी सनू १५७० ६०
में पढ़ती ऐै। आदिलशाह ने मुगलों का स्वामित्व स्वीकार कर शाह
फी पदवी निफाल डालो मोर वह दक्सिन की चढाइयें में उनफी मदद
करने लगा । इन्हीं में उसकी झत्यु सन् १५७८ ३० में हुई॥ तव उसका
लडका सिज्ञखाँ उर्फ बहादुरशाह राजा हुआ। यह फारुकियों का
झतिम राजा घा। उसको मृत्यु सन् १६०० ई७ में हुई। इस प्रकार
सलिकर्सा फे बशघरों में एफ दज्ञन व्यक्तियों ने गदही पर वैठकर
२०० वर्षो में अपनी राज्य-लीला समाप्त फर दी।
वहावुरशाह भपने बाप की नाई दूरदर्शी न था। उसने पक
बर से बैर कर लिया और अपने बचाव के लिये अ्सीरगढ में ऐसा प्रवध
किया कि उससें दस साल तक घिरे रहने पर भी बादर से किसी वस्तु
के काने की ग्रावश्यफता न पडे
यह सुनकर झकवर ने स्वय चढ़ाई कर दी झौर भ्रसीरगढ को
पेर लिया। परतु घेरे रहने से द्वाता क्या था। किला ऐसा अद्वद
था क्लि न उस पर धावा हो सकता घा और न सुरण लगाई जा सकती
घो। पेरशा डालकर भी फिले फो फन€ न फरने से प्रकयर की बढ़ो
हर
प्पर् मध्य प्रदेश का इतिहास
वबदनामी होती । इससे उसकी इसे लेने की बात लग गई परंतु कुछ
उपाय नहीं चलता था। उसने किले के सब रास्ते बंद करवा दिए
और वुर्हानपुर पर धावा करके राज-महलों में डेरा
दिया। फिर असीरगढ़ लोटकर रात-दिन
तापों की सार शुरू की | यह महीने भर तक होता रहा, तब वहादुरशाह
को सुलह करने की कुछ सकी | उसने अपनी साँ ओर लड़के के अकवर
के पास इसी अशिप्राय से भेजा, परंतु अकचर ने कहा कि हम सुलह
तब करेंगे जब वहादुरशाह पूर्ण रूप से हमारी शरण आवे | इसके लिये
बहादुरशाह तैयार नहीं था | इधर अकबर ने अपनी तोपें बंद नहीं कीं---
धूमधड़ाका जारी रखा। तीन महीने इसी तरह बीत गए। इतने में झछबर
मिलती कि मुगत्तों ने अहमदनचगर तोड़ लिया, इससे वहादुरशाह के दिल
को घक्का लगा । बघर शाहजादा सलीम अपने बाप से वागी हो गया
इसलिये अब देनों ओर से निपठारा करने की कुछ इच्छा उत्पन्न हुई |
यहाँ पर यह वतला देना आवश्यक है कि खानदेश की रीति के
अलछुसार असीरगढ़ में राजकुल् के नजदीकी संबंधियों क॑ सात लड़के
काम पढ़ने पर गद्दी पर बैठने के लिये तैयार रखे जावे थे । उनकी किले
के बाहर जाने की श्ाज्ञा नहीं थी । केवल वही बाहर जा सकता था
जिसकी राजगद्दी मित्र जादी थी । वहादुस्थाह का भी इस प्रकार
इस किले सें समय विताना पड़ा था। अकवरी मे।रचे के समय असीर-
गढ़ का किलेदार एक हब्शी जवान था। वह बड़ा नमकहत्ाल था,
आर अकबर की दे ज्ाख फौज का सामना कर रहा था। उसके प्रवंध
से मुगल्लों की तापों और छापों का किले पर कुछ भी असर नहीं पड़ा ।
यह देख अकवर ने अब सिंह का वेष त्यागकर लेमड़ी का परिधान ग्रहण
किया ओर छत्त से काम निकालना चाहा। उसने बहादुरशाह की
किले के वाहर आकर मुलाकात करने का निमंत्रण दिया और छुरक्षित
लोटा देने के लिये सिरेपादशाह की कसम खाई। वहादुर्शाह ने
विश्वास कर लिया | वह किले से बाहर निकलकर हाजिर दवा गया | इसने
गले में रुमाल डालकर नम्नतापूर्वक बादशाह का तीच वार सल्लास किया
अकवर और असीरगढ़
चयोदश अध्याय प्प्३
परतु एक मुगल सरदार ने पीछे से पकड़कर उमे घरती पर दे मारा
और कहा कि सिजदा अर्थात् साष्टांग दडवतू करो । इस उद्दडता पर
अऊबर ने कुछ ऐसी ही ऊपर से नाराजी दियलाकर बहाहुरशाह से
फद्दर कि तुम किलेदारों का इसी वक्त हुक्म लिय दो कि किला इमको
सौंप दें। बहादुरशाह ने इसे स्वीकार न किया और बिदा माँगी।
१रतु वह जबरदस्ती राह लिया गया। अकबर ने अपनी कसम की
कुछ परवा न की ।
किल्लेदार ने जब यद्द सुना तब उसने अपने लड़के मुक-
रिंखाँ के, प्रशभग का विरेध करने के लिये, भेजा । प्रकबर ने पूछा--
कया तुम्दारा बाप किला सींपने का तैयार है? इस नवयुवक
ने शुँदवाड जवाब दिया “बादशाह सलामत ] सौपने की वात ते
दूर रही, मेरा थाप भापसे बात करने तक फो राजी न दोगा।
झगर आप हमारे शाह को न छोडे गे ते उनकी जगह फे लिये सात
शाहजादे तैयार हैं। कुछ भी दो, किला आपको कभी न सौंपा
जायगा |” इस उत्तर से बादशाह के इतना गुस्सा आया कि उसने
उस दूत फो फौरन कत्ल करवा दिया। तथ मुकर्रिब्याँ फे बाप ने
अतिम सदेशा मिजवाया कि में यही प्राथना फरता हूँ कि मुझे ऐसे
घेईमान बादशाह का मुँह कभी देसना न पडे | फिर रूमाल हाथ में लेफर
बद्द किले फे अ्रफसरों और सिपाहियों से बेला “भाइयो। जाडा प्रा रहा
है, मुगल फीज ठिठुर फर मर जाने के डर से जल्दी ही वापस चली
ज्ञायगी। किसी इनसान की ताकत नहीं कि वह इस किले को धावा
या छापा मारकर ले ले। सुदा भले ही ले ले मगर जब तक इसकी
द्विफाजत करनेवाले घोया न दे दव तक फोई नहीं ले सकता। ईमानदारी
दी इज्जत की बात है, इसलिये झाप लोग जोश के साथ किले फो बचादें।
मेरी जिंदगी प्ब द्वो चुफी, मे उस बेईमान वादशाह का मुँह देखना
नद्दी चाहता |! इतना फददकर उसने अपने रूमाल को गाँठ कगाकर
गले में डाल लिया थार फदा रपींच फर प्राण दे दिणय बाहदरे
इब्शो ! इतिद्दास तेरा नाम तक नहा जानता, परतु तू अमर है।
प्र मध्य प्रदेश का इतिहास
अब अकबर की आँखें खुली, क्योंकि छल से भी सफलता न हुई ।
हजार प्रयत्न करने पर भी किला दूटता ही नहीं था, उधर अपने ही
शाहजादे के बिगड़ पड़ने से सल्तनत की भारी धक्का पहुँचने का अंदेशा
था। तब उसने सेचा कि अब एक ही उपाय बचा है। वह यह कि
रिश्वत से काम लिया जाय | उसने किल्ले के बड़े बड़े सरदारों को सोने
और चाँदी से पूर दिया । इन्होंने असीरगढ़ के सात शाहइजादों में से
किसी को भी गद्दी पर बैठने न दिया और अकबर की किला सौंप देने
का प्रबंध किया । इस प्रकार काई साढ़े दस महीने घिरे रहने के बाद
१७ जनवरी सन् १६०१ ३० का असीरगढ़ अकबर के हवाले किया
गया। जब दरवाजे खुले तब भीतर बहुत से ज्ञोंग पाए गए और खाने-
पोने का बहुत सा सामान जमा मिला | बहादुरशाह ग्वालियर के किल्े
में और सातों शाहजादे अन्य किलों में केद रखने के लिये भेज दिए गए।
अकबर की बेईसानी छिपाने के लिये अबुलफजल और फरिश्ता सरीखे
इतिहासकारों ने लिख मारा है कि असीरगढ़ के किल्ले में जानवरों के
मरने से रोग पैदा हुआ | बहादुरशाह ने इसे अकबर का जादू समम्ता
और किल्ले की रक्षा का प्रबंध न करके उसे बादशाह के हवाले कर
दिया, परंतु अब सिद्ध हो चुका है कि यह बात बनावटी थो ।
असीरगढ़ में अकबर ने अपने लड़के दानियात्न का सूबेदार नियुक्त
किया और उसके नाम पर खानदेश का नाम दानदेश कर दिया।
दानियाल का शराब पीने की लत लग गई और वह
सन् १६०५ ३७ में बुहांनपुर में सर गयां। उस
समय लुटेरों का बड़ा जोर था, परंतु मुगलों ने उनके दमन का
अच्छा प्रबंध किया जिससे उतरी हिंदुस्तान, गुजरात और दक्खिन के
बहुत त्ञोग इस जिले में आकर बस गए। सन १६१४ ई० में इंगलैंड
का राजदूत सर टामस रो बुर्हानपुर में ठदरा था। उसने इस शहर
का वशेन लिखा है। वह जहाँगीर का जसाना था। बुरहानपुर ही
के निकट जहाँगीर और उसके लड़के शाहजहाँ का युद्ध हुआ था
जिसमें शाहजहाँ पराजित हुआ | जहाँगीर की सेना का नायक रायसी
सुगल-शासन
चतुर्दश अध्याय प्र
चैहान फा वशज ररौती का राव रतन था। जीव को खुशी में वह
बु्दनिपुर का सूबेदार बना दिया गया । पीछे से वह एक लडाई में मारों
गया। बुर्हानपुर मे उसकी एक सु दर छतरी बनी है। निमाड जिले
फी विशेष बृद्धि शाटजहाँ फे समय में हुई॥ उस समय चुह्टानपुर का बना
हुआ कलाबत्तू विलायव का जाने लगा घा। उसी जमाने में पानी के
नल लगाए गए थे जे अभी तक काम दे रहे हैं। सब १7७० से
मरहठे ने लृढना आरभ किया प्लौर कई पटेलो से चौथ लेना शुरू
फिया। सन् १६८४ ६० में श्रारगजेब ने घुहानपुर में मुकाम किया।
उसके ज्ञाने के पश्चात्त् छुटेरों ने लूड मचाई | सन् १७०५ ६० मे फिर
छूट हुई, तय से वहाँ मुगल सेना रहने लगी |
चतुदश अध्याय
गेंढ़
किवदती फे अनुसार गोंडी का शभ्रादि राजा जादाराय था।
बह गेोदावरी से २० कोस उस पार सदल गाँव फे पटेल का लड़का
गेहिजशोलसि . ! पे सिपाहगिरी करने की घर से निकला कौर
चलता चलता गढा में आरा पहुँचा। उस समय
गठा का राजा नागदेव था। उसके फोई पुत्र नहीं घथा। राजा ने
राज्याधिफारियों से सलाह ली कि गद्दी का अ्रधिकारी कान बनाया
जाय। उन्होंने कट्ठा कि इस बात फोा ईश्वरेच्छा पर छोड दीजिए,
नम्मेदा के किनारे लोगो का जमा फरके एक नीलकठ छोडा जाय | वह
जिसके सिर पर बैठ जाय उसे समझ्तिए कि देव राजा बनाना
चाहता है। ऐसा दी किया गया। नीलकठ जादाराय के सिर पर बैठ
गया। राज़ा ने ठसे झपना उत्तराधिक्रारी वना लिया और पअ्रपनी
कन्या रप्नावनी उसे ब्याष्ट दो |
गढा-राज्य के बशजन दमेह के सिलापरी गाँव के मालगुजार दईैं।
उनके फधनानुसार कटगा निवासी सकतू गेंढि का पाता घारूसाह प्रधम
८६ मध्य प्रदेश का इतिहास
राजा हुआ। सकतू की कुमारी लड़की गवरी से एक नाग ने नर-देह
धारण कर समागस किया, तव धारूसाह पैदा हुआ श्रार नागराज के वर
से उसकी राज़त्व प्राप्त हुआ । किंतु सिलापरी के वंशवृक्ष सें आदि-पुरुष
जादेराय ही बतल्ाया गया है श्रार उसका निवास-स्थान महोड़खेड़ा
लिखा है। जादाराय के घाप का नाम साजसिंदह और निवास-स्थान
मेोठाकट गाँव लिखा है परंतु ये ग्राम कहाँ हैं, इसका कुछ पता नहीं
दिया गया । इन दोनों कथाओं से यही भज्षकता है कि गढ़ा का
राजवंश किसी विदेशी आ्गंतुक की संतान है जिसने किसी स्थांनीय
द्रिद्र गोंडिनी से विवाह कर लिया और उसकी संतति का, कल्चचुरियां
की क्षीणावस्था में, किसी प्रकार अधिकार प्राप्त है गया। संभव है कि
आंध्रविजय के समय कोई जादाराय नामी सरदार आया हो और
गढ़ा के डचक्क्े प्रथम राजा ने, कुलीनता स्थापित करने के लिये, उसे
अपना मूल पुरुष स्थिर कर लिया हो और उसके और अपने बीच का
काल भरने के लिये यथावश्यक नाम बना या बनवा लिए हों। जाँच
करने से तो नामावली नकली जान पड़ती परंतु राजा हिरदयशाह
ने अपने के। ५९वीं पीढ़ी में रखकर उसे श्लेकबद्ध कराया और पत्थर
पर खुदा कर चिरस्थायी कर दिया है
ऐतिहासिक दृष्टि से इस नामावली के प्रथम ३३ नास प्राय: सभी
कल्पित ज्ञान पड़ते हैं। ३४वा पीढ़ी में मदनसिंह का नाम आता हे
और छ४८्वीं मे संप्रामशाह का। संग्रामशाह
वास्तव में ऐतिहासिक पुरुष है। इसने अपने
नाप की सोने की पुतत्लियाँ चलाई थीं, जे कुछ दिन हुए गढ़े ही
से एक दकीने में मिन्नी थीं। उनमें संग्रामशाह का नास और
सवत् १५७० श्रर्थात् १४९१३ ई० पड़ा है। इसी संबत् का दमाह
जिले के ठर्रका ग्लास में एक शिलालेख है। उसमें उसका नाम
खुदा है। ठरेका के लेख में संग्रामशाह का नाम आमणदास देव लिखा
है। उसका यही नाम मुसलमानी तवारीखों में पाया जाता है। मदन-
सिंह और संग्रामशाह के बीच १४ पीढ़ियों का अंतर है। प्रति पीढ़ी के
यथार्थ मूल
चतुद्देश प्रभ्याय प्र
लिये २० वर्ष की श्लौसत लेने से २८० वर्ष का अंतर बैठता है। अन्य
सिद्धांतों से सम्रामशाह का राजत्वफाल सन् १४८० ई० से १५३० तक
ठहराया गया है। यदि १४८० ईसवी में से २८० चर्ष घटाए जाय॑ ते
१५०० ई० का काल आता दै जे। कलचुरियों के भव और गोंडों के
लदय फा समय है। इमसे यही अम्ुमान होता है कि गोंडवश का
मूलपुरुष सदनसिह था जिसने अपने नास पर अनगढ चट्टानों पर सहल
बनवाया जे। प्राज तक मदन महल फहलाता है और मध्य प्रदेश के
प्रेत्ञणीय स्थानों में गिना जाता है। महल बहुत बडा नहीं है, पर्वेत-
जिवासियों के योग्य ही है और पूर्ण रू से उनकी अभिरुचि का दर्शक
है। फदाचित ऐसा स्थान मद्लायत के लिये पावेतीय ले।गों के सिवा
पलार किसी का सूक भी न पडता | क्या जाने, सदनसिह के घत्तराधि-
कारी इस महल मे रहते थे या नहीं परतु सम्रामशाह ने उसका जीर्थेद्धार
फराया श्रौर उसमें जाकर वह रहा भी। मदन सप्रास-मध्यस्थ केवल १३
राजाओं को नाम मात्न प्राप्त तं। उनके शासन या कर्तव्य फा कोई लेस
था वार्ता प्राप्य नहीं है। मदनसित कां पुत्र उमप्रसेन था। उसका पुत्र
रामसिह प्रार उसका ताराचन्द्र ( किसी किसी फे अनुसार रामकृष्ण )
हुआ। उसका उदयसिट, उसका सानसिट, उसका भवानीदास, उसका
शिवसिह, उसका हरनारायण, उप्तता सबलसिदद, उसका राजसिह
ओऔर उसका दादीराय हुआ। दादीराय का पुत्र गेरखदास, उसका
प्रजुनदास प्रौर उसका भाम्दएदास अथवा असानदास हुआ। इसी
पअ्मानदास ने पीछे से सम्रामशाह की पदवी धारण फी पर भूल घास
का उपयोग ही करना छोड दिया। चैतूल जिले के बानूर आम में एक
तान्नपत्र सवतू १४२७ फा मिला था। उसमें लिखा था कि प्रोढप्रताप
चक्रवर्ती महाराजाघिराज भ्रचलदास ने दो कुओ का उद्यापन करके
जनादेन उपाध्याय को झ्रामादद ग्राम दान में दिया। यह ग्राम बानूर
से ४ मील पर अब भी विद्यमान है। मध्य प्रदेश फे इतिहास में
अचलदास राजा का कोई पता नहीं चलता। ताम्रपत्नों में बहुघा
दान देनेवाले के बश का वर्णन रहता दै, परतु इस ताम्रपन्न में माने
प्प््र मध्य प्रदेश का इतिहास
वह जान वूफ कर नहीं लिखा गया । इससे यही निष्कर्ष निकलता है
कि अचलदास किसी ऐसे घंश का था जिसके उल्लेख से महत्त्व के बदले
हीनता देख पड़ती । अचल्दास का समय राजसिंह या दादीराय के
जमाने में पड़ता है। बैतूल जंगलों जिल्ला और आरंभ से गोंड़ीं का
निवास-स्थान रहा है। वहाँ गोंड़ों का राज्य होना असंगत नहों है ।
इससे कल्पना हा सकती है कि अचलदास ही इन देना में से किसी का
मूल नाम रहा है । दादी या दादू लाडू के शब्द हैं। दादीराय के
लड़के, पोते, पड़पोंते सभी के नामें के अंत में दास लगा है, इससे उसका
नाम दारसांतक होना संभव है। कदाचित् दादीराय ग्रौर अचलदास
एक ही व्यक्ति हे । यदि ऐसा ही हा। तो अचलदास की विरुद से
सिद्ध हे|गा कि गोंड़ निवासांचल में छोटे मेट्टे राजा उसके अधीन थे ।
उसकी बराबरी वाला दूसरा राजा नहों था। इससे मानना पड़ेगा
कि मोंडों ने १४वां शताब्दी के चतुर्थ पाद में अपने राज्य की नोंव अच्छी
जमा ली थी। दादीराय के पुत्र गोारखदास ने जबलपुर के निकटस्थ
गेरखपुर बसाया। उसके लड़के भ्र्जुनदास की कीर्ति का कोई चिह्न
उपल्तब्ध नहीं है।
बता चुके हैं कि संग्रामशाह अज्जुनदास का लड़का था | डसका
असली नास असानदास या आम्हणदास था। बाल्यावस्था में वह
बड़ा नटखट और क्रूर था। बाप ने कई बार उसे
शिक्षा दी; बंद करके रखा और सौरगंदें कराई कि
अब कभी कुचाल न चलेगा, परंतु इससे होता क्या था ९ संग्रामशा ह
ने अपनी चाल न छोड़ो । एक बार वह छुछ गड़वड़ करके डर के मारे
बघेलखंड के राजा वीरलिंहदेव के पास भाग गया। इंससे अज्जुनदास
ने उसे युवराजत्व से च्युत कर दिया । जब उसकी यह खबर सिल्ली तब
ह तुरंत वापिस आया और षडूयंत्र रचकर उसने अपने बाप ही का सार
डाला और स्वय॑ गद्दी पर बैठ गया ।* जब वीरसिंहदेव ने घुत्ता कि अमान-
सग्रामशाह
१---वीरसिंहदेव संवत् १६६२ से गद्दी पर बैठा था और संग्रामशाह का समय
सबत् १५३७--१५४६६ भाना जाता है। यदि उक्त दोनो सबत् ठीक हैं तो यह
चहुरदेश अध्याय घ&
दास ने पिठ-हस्या की है,तव उसने गढे पर चढाई कर दी, परतु अमानदास
सामना न फरके दस-पाँच झ्रादमियों के साथ योरसिद्ददेव के पास जा
सडा हुआ कार उसने रो गाकर उसके मना लिया। अमानदास की
वालचाल वबाटयकाल के साथ गई | जब उसने राज्य की बागडेर अपने हाथ
में ली,तव उसने अपने राज्य की वह वृद्धि की, जे उसके पूर्वजों ने सेची
तक न थी, कौर जिसको उसके पश्चात् उसकी सतति कभी लाँघ न
सकी) उसके पोते के पोते हिरदयशाट की शिक्ञांऊत वशप्रशस्ति में
सगर्व उल्लेस किया गया है कि सम्रामशाह ने समग्र पृथ्वी जीत लो
थी शार ५२ गढ स्थापित किए थे+# |
गोंडों में ते! एफ कद्दावत द्वो गई है कि 'आमन बुध वाबन
में'। बपाती में श्रमान को तीन-चार गढ मिले थे, शेप उसके निन्ञ
धटना निराघार हो जाती है। करिठु एक लेसक ने लिखा दऐ कि प्पेलसद के प्रतिद
वीरसिद्देव का समय १४४७ वि० से १५४६७ वि० तक दे। वास्तव में प्राधवेश
( उधेलसड ) वीरप्तिददेव और श्रोरह्माधिप (बु देलसड ) बौररिद्ददेव दो विभिन
पपति हैं। श्रत वर्णित घटना से समय की विपमता नहीं आती |--स०
9 यावनगढ ये ये---१ गठा, २ मारूगढ, ३ पचेलगढ, ४ सिगोरगढ, ४
अमेदा, ६ कनेजा, ७ वगसरा, ८ टीपागढ, ६ रामगढ़ १० परतापगढ, ११ श्रमर-
गढ़, १३ देवगढ़, १३ पाटागढ, १४ फ्तदपुर, १५ निमुआगढ़, १६ भेवरगढ,
१७ परगी, १८ घुनसीर, २६ चाँवड़ी (सिवनी), २० डोंगरताल, २१ केारवा
( करवा ) गढ़, २२ कमेनगढ, २३ लाझागढठ, २४ सौंदागठ, २५ दियागढ, २६
राक्ागढ, २७ परश्यरदिया, २८ शाहगगर, २६ घामेनी, ३० इणा, ३१ मटियादे,
३२ गढाकेटा, ३३ शाहगड़, ३४ गठपदरा, ३३ दमोह, ३६ (रहली) रायमिर,
३७ इटावा, रे८ गिमलासा (सुर३१,३६ गठगुनौर,४« यारोगढठ, ४१ चाक्रीगठ, ८२
राइतगढ, ८३ मकड़ाइ, ४४ कारोबाग ( फासबाप ) «४ उरपाई, ४६ रायसेन,
४७ माराते, ४८ भोपाल, ४६ उपतगढ, ४० पनागर, ५१ देवरी, ५२ गारफामर |
ये गठ सागर, दमाद, जयलपुर, सिययी, मंडला, नरसिहृपुर, छिंदगाडा, पागपुर,
द्वाशंगायाद और विलासपुर तक फैले हुए थे। ह्वगाम से अप गिसमे ही स्थाय दस
साय उजाह है |
६० मध्य प्रदेश का इतिहास
भुजेपाजिंत थे। उसने जो संग्रामशाह की पदवी घारश की
उसका वह पूर्ण रूप से पात्र था। सुसलमान इतिहासकारों का
कथन है कि यह नाम वीरसिंहदेव ने सन् १५४२६ ६० में रखाया था
जब भअरमानदास ने गुजरात के वहादरशाह की लड़ाई में वीरसिंहदेव का
सहायता दी थी। ठीक नहीं हा सकता, क्योंकि आमगदास
के सन् १५५६ ६० के पूर्व के सिक्कों में संग्रामशाहर नास अंकित है
स्थानीय लेखों से ज्ञात हाता है कि उसने संबत १५४१ ( सन् १४८४
६०) मे यह पदवा धारण को । जब उसको सना साडागढ़ के सुल्तान
से हार गई ओर गढ़ा शत्र क॑ द्वाथ में चला गया तब उसने स्वयं जाकर
केवल एक सहस्र सवारों की सहायता से शत्रदत्व को लितर-विवर कर
सुल्तान के निशान इत्यादि छीन लिए। संग्रामशाह ने गढ़ा के आस-
पास कई तालाव,मंदिर, मठ इत्यादि वनवाए झार जी स्थानों की मरम्मत
करवाई, नवीन श्राम बसाए तथा अन्य प्रांत के लोगों का अपने ग्रार्मों में
बसने के लिये उत्साहित किया । गढ़ा का संग्रामसागर तालाब उसी
का वनवाया है। वहीं पर भैरव का एक वाजना मठ है। संग्रामशाह के
इप्टदेव भैरव ही थे। एक तांत्रिक ने आकर उन्हीं भैरवजी को संग्राम-
शाह की वलि देने का मंसूवा किया। परंतु राजा ऐन वक्त पर ताढ़
गया शोर उसने तांतिक ही का बलिदान कर डाला। उसने मदनमहल
और सिंगोरगढ़ की मरम्मत करवाई और एक गाँव, अपने नाम पर, पिछले
गढ़ के पास बसा दिया। वह अब भी संग्रामपुर कद्द्ञाता है। चौरा-
सस्लीमन के लेखानुसार इरएक बढ़े गढ़ में ७५० गाव थे । केवल अमेदा
में ७६० थे; छेटें में ३५० या ३६० थे । ३५० वाले नवर ४,१ २,२४,२५,४६
और ३६० वाले नंबर १३,१६,१६,३१,३२,३४,३६५४१,४२,४८ है। गामसंख्या
का येग स्घ्द८० है। परंतु अचुलफजल ने ८०,००० लिखा है। यदि हरएक
गढ़ में डेढ़ डेढ़ हजार गाँव रहे हों ता अवश्य आइने अकवरी की संख्या शुद्
घमकी जा सकती है। बतंमान जबलपुर जिला संग्रामशाह के कई गढ़ों के
विभागों से वना दे; बथा--गढ़ा, पचेलगढ़, अमेदा, कनैाजा, पाटनगढ, दियागढ़
ओर वरगी।
चतुर्देश अध्याय १
गढ़ का किला भी इसी ने बनवाया और अपने नाम के सिक्के चलाए |
इसके सुवर्ण सिक्की पर एक विशेषता पाई जाती है। वह यह कि उन
पर न फेवल हिंदी में ही नाम लिसा बरन तिलगी में भी सादवा दिया
है। यह उसके माठ-भूमि फे स्नेह का सूचऊ है ।
सप्रामशाह ने ५० वर्ष राज्य किया। उसके पश्चात_ उसका खड़ा
दल्लपतिशाह राजा हुआ । उसने सिगोरगढ में रहना पसद किया |
दलपतिशाहइ का विवाह महोायवे के चदेल राजा की रूपवती
कन्या छुर्गावती से हुआ था। दुर्गावती ने अपना सौभाग्य चार ही
बर्ष भोग पाया था कि दल्पतिशाह चल बसा ।
रानी ने अपने नावालिग पुत्र वीरनारायण फी भोर
में राज्य की बागडोर अपने हाथ में ली ओर १४ वर्ष तक बडी योग्यता
के साथ शासन किया | उसने प्रज्ञा के हिताथे अनेक उपयोगी काम
बनवाए झऔर अपने राज्य में अ्रमन चेन फैलाया। इस वृद्धि को
देखकर फडा मानिकपुर फे नवाव आसिफर्खा फा जी ललचाया श्ौर
उसने इस विधवा से राज्य छोन लेने फा विचार किया। बहाना
ढूँढने फो कुछ देर न लगी।
फहते हैं, दुर्गावती रानी फो प्रकबर वादशाह की झोर से एक
सोने का रहेंटा ( चरखा ) इस भ्रधे से नजर किया गया कि खियो फा
फाम चरसा चलाना है, राज्य करना नही । इसके प्रत्युत्तर में रानी ने
एक सोने का पीजन बनवाफऊर मिजवा दिया, मानों यह कहता भेजा
कि यदि मेरा फास चरणा पल्ताना है ते तुम्हारा पींजन से रुई
धुनफना है। इस पर बादशाह बहुत नाराज है! गया । कुछ लोग फद्दते
हैं कि दुर्गाववी के पास एफ श्वेत दाथी घा। वह अकबर बादशाह ने
अपने लिये माँगा | रानी ने इनकार किया | इस बात पर बचद्द नाराज हो
गया भर आ्रासिफर्सां फो चढाई करने का हुस्म दे दिया। चस्पा पार
पॉज्न का किस्सा ते किस्सा द्वी मालूम पढ़ता है, परतु चढाई अवश्य
को गई। एस जमाने में लडाई करने फे लिये फाई फारण दठने फी
आझावश्यक्ता नहीं पड़ती थी । बाहुबल ही उचित कारण समझता जाता
दुगावती
<२ सध्य प्रदेश का इत्तिहास
था। अंत में आसिफखों सन् १४६४ ६० में ६ हजार सवार और १२
हजार पैदल सिपाही लेकर सिंगौरगढ़ पर चढ़ भ्राया । दुर्गावती ने तुरंत
सामना किया, परंतु उसकी सेना तैयार नहीं थी, वह शिक्षित सिपा-
हियों के सामने नहीं ठहर सकी । किले में घिर जाने के बदले रानी
ने गढ़ा जाकर लड़ाई करने का विचार किया, पर॑तु शन्नु उसके पीछे हो
लिए ओर उसे गढ़ा में प्रब'घ करने का मौका नहीं दिया। तब रानी ने
मंडला की ओर कूच किया शोर १९ सील चल्लकर घाटियों के बीच
एक सँकरी जगह पाकर वहाँ पर माोरचा जमाया शोर लड़ाई ली।
शत्रुओं के भ्राक्रमण करते ही गोंडों ने ऐसी मार मारी कि उनके पैर
उखड़ गए। गोंड लोग केवल तीर-कमान अ्रर बरछौ-तल्लवार ही से लड़ते
थे। उनके पास तोपें नहीं थीं। आसिफ्खाँ के पास तेपखाना था ।
किंतु घाटी की लड़ाई में वह वक्त पर पहुँच नहों पाया था, इसलिये पहले
दिन उभय पक्त के समान अख्न-शखर द्वारा युद्ध हुआ। दूसरे दिन रानी
हाथी पर सवार होकर, घाटी के मुख पर, लड़ने के लिये स्वयं उपस्थित
हुई। उसकी सेना जी-ताड़कर लड़ने के लिये खड़ी थी और इसमें संदेह
नहों कि उस दिन वह शत्रुओं को मठियामेट कर डालती, परंतु आसिफ्खाँ
के भाग्य से ऐन वक्त पर तोपखाना आ पहुँचा | फिर क्या था, एक ओर
से तोपों की मार, और दूसरी ओर से तीरों की बौछार होने लगी । विषम
श्हों से बराबरी क््योंकर हो सकती | इतने पर भी रानी तनिक भी न
डरी, वह अपने हाथी पर से बाण-वर्षा करती रही । इतने में एक तीर
आकर उसकी आँख में लगा ओर जब उसने उसे खोंचकर फेंक देना चाहा
ते उसकी नेक टूटकर आँख के भीतर ही रह गई। इतना बड़ा कष्ट
होने पर भी रानी ने पीछे हटने से इनकार किया। गोंड फौज के पीछे एक
छोटी सी नदी थी। बह युद्धारंभ के पूर्व सूखी पड़ी थी; परंठु इस दिन के
शुरू होते ही उसमें अकस्मातू इतनी बाढ़ झा गई कि उसको हाथी भी पार
हीं कर सकता था। दोनों ओर से फौज का मरण दिखता था | आगे
से तोपें, पीछे से पानी का प्रवाह ।] फिर भी इस दृढ़-संकटप नारी का सन
बिलकुल न डिगा। उसके सहावतने प्राथना की कि हुक्म हो ते मैं किसी
चंतुरदेश अध्याय ३
तरह हाथी की नदी फे पार ले चहेँ । परतठु बीर नारी दुर्भावती दुर्गा हो
थी । उसने उत्तर दिया कि नहीं, मैं या ते। शत्र का सार हदाऊँगों या
यही मर जाऊँगी । इतने में ही एक दूमरा बाग उसके गले पर गिरा |
सैना मे किसी मे यह खबर पौला दी कि कुमार वीरनारायण जे वीरगति
प्राप्त हो गई। तोपों की मार, पानी की बाढ, कुमार की झुत्यु और रानी
की घायल दशा देख गॉंड-सेना अधीर होफर तितर बितर होने क्गी।
इसी समय शज्नुओं ने बढऊूर रानी को चारों ओर से घेरना चाहा। जब
रानी ने देखा क्रि अ्रव बचने की आशा नहीं है, तब उस धोरा वीरा ने
अपने सहावत फे हाथ से कटार छीनफर वीर गति का अवलबन किया।
बरेला के निक्नट जिस स्थान पर रानी हाथो से गिरी थी वहाँ पर एक
चबूतरा बना दिया गया है। जो कोई वहाँ से निकलता है, श्वेत पत्थर
उठा कर उस चबूतरे के निकट भ्रध्येरूप डाल देता है, मानो उस वीर
नारी की घवल कीति फा स्मण्ण कराता है।
आसिफर्खां ने वहाँ से चलकर चैरागढ़ पर धावा किया
और रानी का सब माल लूट लिया और आग लगाकर उसे विध्वस
कर डाज्ा। अवसर पाकर आसिफर्साँ ने स्वतन्न राजा बन जाना
चाहा, इसलिये गठे में कुछ दिन ठद्दरकर वह सिलसिला जमाता रहा,
परतु ठीक न जम पाया। अत में उसने इस विठ्रोह के लिये श्ररघर
से क्षमा माँग ली और वह प्रपने पुराने स्घान का लौट गया |
अकबर ने गढा ऊा राज्य झपनी सल्तनत में शामिल फर लिया
परतु गॉड घराने का कायम रसा। बीरनारायण अपनी बीर माता
के साथ पीरभूमि से बीरलोला दिसलाऊर वीरलोक को गमन फर
गया था, इसलिये अकबर ने दलपतिशा के भाई चढद्शाह से १० गढ
नजर लेकर उसके गढे की गद्दी पर बिठा दिया । इस प्रकार भोंडों का
अधिकार इस जिले में बना रहा परतु उन्तकी स्वत्तता चली गई।
चद्रशाइ ने थेडे ही दिन राज्य किया। उसकी मृत्यु के पश्चात
इसके दूसरे लड़के मघुकरशाह ने अपने बडे भाई फो धोखा देकर भार
डाज्षा और वह आप गद्दी पर बैठ गया । पीछे से उसका अपनी करनी
है मध्य प्रदेश का इतिहास
पर इतना पश्चात्ताप छुआ कि उसने एक खोखले पीपल के पेड़ में बंद
होकर आग लगवा ली और इस प्रकार अपने प्राण देकर प्रायश्चित्त कर
डाला। तब उसका लड़का प्रेमनारायग गद्दी पर बैठा। मधुकरशाह
की मृत्यु के समय प्रेमनारायण दिल्ली में था। चल्तते समय यद्द ओंड़द्े
के राजा वीरसिंहदेव” से नहीं मित्त पाया। इसको वीरसिंह ने इतना
बड़ा अपमान समझता कि मरते समय अपने पुत्र ज्ुकारसिंह से सौगंध
करा ली कि इसका बदला पूरे तौर से लिया जाय |
गोंड़ लोग हल में गाय-बैल देनों को जोतते हैं ९ किंतु गाय का
जेतना हिंदू ल्लोग निंदनीय समझते हैं। कहते है, यही बहाना खड़ा
कर जुमारसिंह ने प्रेमलागायण पर चढ़ाई कर दी और उसको मारकर
अपने बाप का वैर भेंजा लिया। कोई काई कहते हैं कि जुकारसिंह
स्वयं लड़ने नहीं गया, उसका भाई पहाइसिंह गया था ।
जे हा, गाय की गुहार पहाड़सिंह के प्रति की गई जान पड़ती है।
इसका एक कवित्त है, जिसका अंतिम चरण यों हैं “वीरसिंहदेव के प्रवल
हाडसिंह तेरी वाठ जोहती हैं गं।एँ गोंड़वाने की |?
प्रेमनारायण के लड़के हिरद्यशाह को अपने वाप के मारे जाने की
खबर दिरलो में मिल्ली ॥ वहाँ से वह तुरंत रवाना हुआ आर बु देल्ों
पर आक्रमण कर जुफारसिंह का सिर काट लाया |
वह अपनी राजधानी को मंडला से हटाकर राम-
नगर ले गया और वहाँ उसने किला ओर महत्त वनवाए | यही एक गोंड़
राजा है जो एक शिलालेख छोड़ गया है। उसमें गोंड्रों की बड़ी भारो
बंशावलो दर्ज है। इस राजा ने ७० वर्ष राज्य किया |
हिरदयशाह के मरने के बाद इसका लड़का छत्रशाह केवल ७
वर्ष राज भोग कर सर गया । तब उसका लड़का केशरीसिंह गद्दी
दिरदयशाह
१--वीरसिंददेव का समय घटना के गड़बड़ में डालता है |--सं०
२--जे गाय गामभिन नहीं हेती वह यदि जाती जाने लगती है ते उसमें
प्राय; गर्म धारण की क्षमता आ जाती है। आज़ कल इस मत का अचार है।
कदाचित् गेड़ें की भी यही धारणा रही हे। |--सं०
बतुदेश अध्याय चर
पर बैठा परतु शीघ्र ही घर में फूल उत्पन्न हुएई। केशरीसिह मारा
गया और उसका चचा ह्रीसिद्द गद्दो पर बैठा, परतु लोगों मे
श्रांसिद का सारकर केशरीसिह फे लडके नरिदशादह्र को राजा
बनाथा। तब हरीसिंह के लडके पहाडसिष ने श्रारगजेब की
शरण ली और वह मुगल सेना चंढा लाया । नरिदशाह हार
गया परतु पहाडसिह सेत ग्हा। तन उसके देनों छडके भाग गए
और फिए दिल्ली जाकर मदद मसाँगो, परतु उनका प्रयास सिष्फल हुआ |
अब उन्होंने एक नई युक्ति साचोी। अपना धम्म बदल डाला--वे
मुमलमान दे गए। इस तरकीब से उनके मदद मिल्ल गई और नरिद-
शाह से एक बार फिर लडाई छिडी। पझत में वे देनों भाई मारे गए |
इसकी बाद नरिदशाह निश्चित तो दे। गया परतु इन भगडें में पडने से
उसका राज्य क्षीण हा गया। उसको भ्रनेफ राजाश्रों से सहायता
लेनी पडी और उसके बदले में कई गठ नजर करने पडे। इसी प्रम्नार
गद्दी पर कायम रखने के बदले में उसे मुगत्ञों को ५ गढ नजर फरने पडे |
नरिदशाह सन् १७३१ ६० में मर गया। तब उप्तजा लडभा
महाराजशाह गद्दी पर बेठा। सम्रामशाह के बावन गढों में से फेवल
२७ इसके हाथ लगे। महाराजशाह् को निव ल देस पेशवा की लार
टपको । उसने मडला पर चढाई फरके महाराज्शाह फे! सार डाला
और उसके लडके शिवराजशाह की गद्दो पर बैठा ४७ क्लास रुपया
सालाना चैाध मुकरंर कर दी ) नागपर के भोंसले भे चौथ धसल करने
के बहाने गोंडों का दवाना शुरू किया और उसने छ गढ अपने लिये ले
लिए | शिवराजशाह सन् १७४७ ६० में मर गया। तब उसका लडका
दुजनशाह गद्दी पर बैठा। यद्द बडा क्र और दुष्ट घा। उसके चचा निमास-
शाह ने मैका पाकर उसे कत्त करवा दिया और बह आप राजा बन गया।
निजामशाह द्वेशियार आदमी था। उसने अपने राज्य की
उन्नति करने की चेष्टा फी । परतु पुराना वैभव कैसे लौट सकता था !
उसके मरने पर गद्दी के लिये फिर बखेडा उत्पन्न हा । आसिरकार
उसके भवीजे नरदरशाह का गद्दी मिली, परतु उससे और नागपुर फे
दद् मध्य प्रदेश का इतिहास
मरहठों से कूगड़ा उत्पन्न हो गया। नरहरशाह गद्दी से उतार दिया
गया और निजामशाह का लड़का सुप्रेरशाह राजा बनाया गया। यह
बात सागर के मरहठों का पसंद न हुई। इसलिये उन्होंने सुमेरशाह
के निकालने की कोशिश की । सुमेरशाह ने अपना पाया उखड़ता देख
कुछ शर्तों पर नरहरशाह को फिर गद्दी पर बैठाने की बातचीत चलाई ।
सागरवालें ने उसे शर्तें' ठदराने के लिये बुला भेजा। विश्वास का
इंघा वह बेचारा चला गया परंतु उसके साथ दगा की गई। मरहदठों
ने डसे पकड़कर सागर के किले में कैद कर दिया और नरहरशांह को
गद्दी पर बैठा दिया। सागर के सरहठे नरहरशाह का कठपुतल्ली सा
नचाने लगे। जब उसकी यह ज्ञात हुआ कि मैं नाम ही का राजा हूँ,
ते उसने मरहठों का निकालने पर कमर कसी | इस पर मरहठों ने डसे
पकड़कर खुरई ( जिला सागर ) के किले में कैद कर दिया | वहाँ पर
उसने सन १७८ में खत्यु पा गढ़ामंडला के गोंड़-राजवराने की लीला
समाप्त कर दी ।
गोंड जंगली जाति है, जंगलों में रहती आई है। इंसलिये
उसका सुख-संपत्ति से संपर्क सदेव ही कम रहा। अब भी उसकी
दशा कुछ सुधरी नहों है। सहसौ्रों गोंड़ों के
पास आज भी छँगेटी के सिवा दूसरा शरीर-
शआ्राच्छादन न मिलेगा। जैसा उनका सादा वेप है वैसा ही सादा
खाना-पीना है। अपने आप उत्पन्न हेनेवाले कंदसूल और जंगली फल-
फूल , पत्ते--यथा महुआ, चार, तेंदू, भेलवाँ, केवलार आदि--उनका खाद्य
रहा है और अब भी है। इसके सिवा ईश्वर के पैदा किए चूहों से लेकर
वारहसिंगा तक अनेक जीव-जंतु भरे पड़े थे। अनगिनती पच्ती
वृक्षों का आसरा लेते घे । ये मानों गोंड़ों ही के लिये बनाए गए
थे। घरेलू जानवरों से भी उन्हें परहेज न था। बकरे, मेढ़े, गाय,
सैंस, वैल्ल सभी उन्तके काम आ सकते थे । शौक की वस्तु शराब थी।
महुए के भाड़ों की कमी नहीं घी। आबकारी का महकमा था नहीं।
इसी में गोड़ों की चैन की वंशी बजती थी। इन सब कारणों से गोंड़ों के
गांड
चतुदेश अध्याय च्द्क
लिये खेती-पाती फरने की कुछ भ्रावश्यकता नहों थी । अपनी ही जाति
का राजा पाकर ये अपने जगलों में शेर के समान स्वतन्त विचरते थे। वनज
वस्तुओं पर इनका पूरा अधिकार था, फिर ये क्यों किसी प्रकार का
परिश्रम करते १ इसी कारण गॉड-राज्य का बहुत सा भाग जगल्न बना रहा,
यहाँ तक कि अकबर के समय सें गदा फे जगलों में जगली हाथी पाप
जाते थे, जे पकडकर वहुधा कर में दिए जाते थे । इन कारणों से आाल-
स्यदेव मे गोंड जाति पर अपना पूरा अधिकार जम्ता लिया था |
अब रदी हिंदू प्रजा, उसका अपने पेषण के लिये उद्योग करना
ही पडता था। जनसख्या अधिक नहीं थी, उचेरा भूमि की अधिकता थी,
भूमि को भ्रदल बदलकर जोवने से उपज भ्रच्छी होती थी, इससे उनके
लिये भी 'भाराम घा। कर-स्वरूप पैदावार के भाग लेने की जो प्रथा
आ्राचीन फाख से चली आती थी, वहो स्थिर रही। उस जमाने में
आवश्यकताएँ कम थों, खाने पीने, भ्रेढने-बिछाने पर धातुमों द्वारा
शरीर को पआाभूषित करने के सिवा और कोई शौक न तो ज्ञात था, न
उसकी चाह थो । इसलिये हिंदू भी सरलता से जीवन बिताते थे श्र
प्राय धर के एक मुखिया के परिश्रम से सपूर्ण कुद्द ब का भरण पोषण
हो जाया करता था।
गॉड आदिम पअ्रवस्था के लोग थे, 'इससे उनका धर्म भी प्रादिम
अवस्था फा था। वे बडे देव को पूजते थे मैर उसे गाय-बैल चढाते
थे। राजा गोंड़ होने से यही राजधर्म बन जाता,
यदि हिंदू इन राजाओं का अपने हाथ में न ले
छेते। वे जानते थे कि मूर्स जगली गोंडों को द्वाथ में लाना फठिन
नहीं है, इसलिये उन्होंने राजवश का अलग करने की चेष्टा की प्रौर
भोंड जाति के दे! विभाग करा दिए--एक राजगोंड और दूसरे सर
अ्र्धात् असल गोंड । राजगोंडो में हिंदू प्रथाएँ चला दीं, उनका जनेऊ
करवा दिया और उनके सन में भर दिया कि वे उच्च राजपूत-जातीय हैं
कौर नीच खर गोंडें से भिन्न हैं। राजकुल की एक लवी-चैडी बशावल्ो
प्रत्तुत कर दी और यह कथा प्रचलित कर दी गई कि मूल पुरुष जादोा-
फ
गोंड धर्म
न्द्पप मध्य प्रदेश का इतिहास
राय ज्षत्रिय था। उसने गॉड़ राजा की लड़की से विवाह किया था शर
बह गोंड्रों की गद्दी का अ्रधिक्षारी वन गया था, इसलिये वह गोंड कहलाने
लगा था। उसने गोंड़-कुमारी रत्नावल्ली के हाथ का भोजन भी नहीं
किया। गढ़ा में आने के पूर्व उसका विवाह ज्षत्रिय-वंश सें हो गया
था और उसके पीछे जो राजा हुआ वह पहली ख्रो का लड़का था, न
कि रत्नावली का । अहं किसको वश में नहीं कर लेता ९ गोंड़
राजा अपने वंश-पुराण से निस्संदेह वहुत प्रसन्न हो गए होंगे। उन्होंने
ज॑गली गोंड़ों से जाति-व्यवहार छोड़ दिया ओर श्रपने संबंधियों की
अ्रत्तग पंक्ति बना ली और हिंदू-सतानुसार आचार-विचार इतना बढ़ाया
कि उनके चोकों में जलाने की लक्षड़ियाँ तक घुलकर जाने लगीं | मंदिर,
शात्ता, कथा-पुराण इत्यादि का प्रचार हैो। गया अर राजगोंड बिलकुल
हिंदू हो गए। राजवंशज अपने बल और वैभव से राजपृत क्ुमारियों के
साथ विवाह-संबंध करने लगे । सबके विदित ही है कि राजा दल्लपति-
शाह की रानी दुर्गावती चंदेलिन थी। अन्य राजाओं में से किसी की
पड़िहारिन, किसी की बैस और किसी की व्घेलिन रानियाँ थों। यद्यपि
अब राज्य चत्ा गया है भै।र इस कुल के प्रतिनिधि गरीब हे। गए हैं
फिर भी वे राजपूतों से विवाह-संबंध करते जाते हैं ।
गोड़-सभा में एक दीवान, एक पुरोहित श्र एक कवि रहता
था। भीररी प्रबंध के लिये दीवान जिम्मेदार रहता था। पुरोहित
फेवल धर्माधिकारी ही नहीं रहता था, प्रत्युत बह
बहुधा नायव दीवान का काम भी देता था। सेना
का प्रबंध राजा के हाथ में रहता था। युद्ध में वह स्वयं जाया करता
था। यहाँ तक कि राजा न रहने पर रानियाँ लड़ने जाया करती थीं।
रानी दुर्गावती ने स्वयं रणक्षेत्र में जाकर आसिफखों से युद्ध किया था |
बहुत्तेरे लोगों के इसलिये जागीरें दे दी गई थी कि वे स्वय', काम
पड़ने पर, नियमित सेना लेकर उपस्थित हां । कवि अन्य राजदरबारों की
देखादेखी पीछे से रखा गया था, विशेषकर उससे भाठ का काम लिया
जाताथा ताकि वह अवकाश सें राज़ा और अन्य संब'धियों का गुणानुवाद
गोंड-शासन-पद्धति
है
पंचदश अध्याय दर
करे। साहित्य के उत्तेजन की ओर गोंडों का ध्यान कभो नहीं गया।
चापलूसें मे कम्री उनफा चपू बना दिया ते छुछ पारितोषिक्त कभी
किसी का मिल गया तो ठोक, नहों वो साहित्य प्रेमी के लिये जुद्दार
ही बसथा। गवैए नयेए जेसे गाना नाचना सीखते थे वैसे पढेए-
लिखैए पढना लिसना सीखते थे। ब्राह्यणा और कायस्थे। का यही
ज्ञातीय व्यवसाय समझा जावा था शोर उन्हों के बशजों फा लिसने-
पढने का काम सौंपा जाता था। धर्म-सबंधी काम विशेषरर आ्ाह्मयों
की दिया जाता था श्रार ससार सवधी जैसे माल-विभाग इत्यादि की
लिखा पढी लालाजी के हाथ में रहती थी। पर यदि फोई व्यक्ति कोई
बड़ा भारी अपराध न कर बैठे ते एक ही वश में वह काम पीढो दर पीढी
चला जाता था। इसलिये राज्याधिकारियों श्रौर प्रशणा की स्थिति
स्थिर रहती थो। जे। वश जिस सम्मान को पहुँच गया था उसका
भोग उसकी संतति को मिलता था। इससे चुनाव ध्लौार असताप की
भमादे तो मिद जाती थी परतु किस्री प्रकार की बृद्धि नहीं होती थी,
सदेव के समान गाडी लीक ही ज्लीक से हुलकती चली ज्ञाती थी।
मामले मुरूदमे बहुधा जबानी तय कर लिए जाते थे। वाल फी साल
निकालनेवालों फा उस समय जन्म नहीं हुआ था। इसलिये न्याय
करने में भ्रधिक समय नहीं लगता था |
पंचदश अ्रध्याय
बु देले
गोंडों दी फे शासन-काल में बुदेले ने लूटमार करना प्रारम कर
दिया घा। पहले बता चुके दें कि वीरसिद्द ने घामानी का परगना ले
दी लिया था। बोरसिद्ददेव श्रोडद्धा का राजा घा। उसी वशा में
छत्नसांल पैदा हुआ घा, पर्तु वह राजगदो का अधिकारी नहों था।
उसने झपने बाहुब॒ल्त से लूट मार करके नवोन राज्य फी रघापना की ।
१०० सध्य प्रदेश का इतिहास
सागर जिले में उसने कई बार घावा किया और प्राय: सभी नगर लूट
लिए। लाल कवि रचित छत्रप्रक्ताश में व्यारेवार वर्शन लिखा है कि
उसने किन-किन गाँवों का लूटा | उसने घामैनी पर अनेक वार आक्रमण
किए और क्रमश: प्राय: पूरा जिला अपने अधिकार में कर लिया।
अंत में सन् १७२८ ३० में मुगलों के सुवेदार सुहम्मद्खाँ बंगश ने अस्सी:
हजार अश्वाराही और हाथी लेकर छत्नसाल पर चढ़ाई कर दी, तब
छत्रसाल संकट में पड़ गया। उस समय उसने वाजीराबव पेशवा की
हायता चाही ओर उसे लिख भेजा :--
जे गति भई गजेंद्र की, से गति पहुँची आय ।
वाजी जात बुदेल की, राखे बाजीरायः?॥
इस दाहे के पाते ही बाजीराव एक ज्ञाख सवार लेकर तुरंत
चढ़ धाया और सुहम्मद्खाँ बंगश को जेंतपुर के किले में घेर लिया ।
बु देले और मरहठे छः महीने तक मेरचा जमाए रहे और शाही फौज की
भूखों सार डाला । कहते हैं कि उस समय प्रादा ८०) सेर विकने
लगा था। जीत के थोड़े ही दिन पश्चातू सन् १७३२ ३० में छत्रसाल
की मृत्यु हुई। उसके दा लड़के थे, दिरदयशाह और जगतराज।
पेशवा की सहायता के बदले, छत्रसाल ने वाजीराव का अपना हवीय पुत्र
मानकर राज्य के तीन हिस्से किए। उसके शअ्रनुसार जेठे पुत्र हिरदय-
शाह का ३२ लाख की रियासत मिलनी अर्थात् पन्ना, कालंजर शऔर
शाहगढ़ के इलाके । दूसरे लड़के जगतराय को जैतपुर, अजयगढ़ और
चरखारी के ३३ लाख के इलाके और पेशवा का ३७८ लाख की सागर,
कालपों, फाँसी और सिरोंज की जञागीर मिली |
छत्रसाल वीर ही नहों वरन् कविता-रसिक ओर रवय॑ कवि भी
धा। वंगश-विपत्ति में फंसने पर भी उसने सहायता की प्राथना
कविता ही में की श्रेर जब उसके धरानेवालों ने ही एक बार उसकी
इँसी की आर लिख भेजा :---
ओड़छे के राजा और दतिया के राई।
अपने मुह छत्नसाल बने भना वाई॥
पंचदश भ्रष्याय १०६
धव उसने इसका मूुँ दवाड उत्तर कविता दी में लिप मेजा;
सुदामा तन देरे तथ रक हू ते राव कीन्दों,
विदुर तन देरे तब राजा किये चेरेते ।
कुबरी तन देरे तव सुदर स्वरूप दीन्दों,
द्रौपदी तन देरे तब चोर बढ्यों टेरे ले' ॥
फद्दव छत्रसान प्रष्टाद को प्रतिज्ञा रासो,
दिरनाकुस सारा नेक नजर न फेरे ते ।
ए रे शुरु ज्ञानी अभिमानी भए कहा द्ोव,
नामी नर द्वाठ गरुडगामी फे हेरे ते ॥
भूषण फवि जब छत्रपति शिवाजी से अमेक प्रकार का दाम पान
पाफर छत्रसाल के यदाँ भ्राया तव छत्नताल ने उसमे अधिक उपहार
देने का सामथ्य न देसफ़र भूषय फी पालको अपने कंधे पर रप ली।
जब भूपण पालकी से उतरा भार उसे यद्द बाव ज्ञात हुई तब वद फूला
नहीं समाया। उसकी प्रतिप्ठा फी दृद दा गई। उसने तुरत यद्द
फवित्त बनाकर कद्दा +-
राजव भ्रसड तेन छात्रत सुजस बडे,
गाजत गयद दिग्गगन द्विय साल्न फो।
जाद्दि फे प्रताप सो मलीन आफनाब ह्ाव,
घाप चजि दुज्ञनन फरत यह झुयाल फो।
साध सजि गज तुरी पैदरि फवारि दीन््दें,
मूपण भनत ऐस दोन प्रतिपाल फो।
प्रौर राद राजा एक मन में न स्पार् भय,
साए को सराष्ट्री की मरा छच्न साल को]
हिरदगशाद् ने झपने पिसा फी झत्यु फे परचात् पन्ना को प्रपनी
राशयानी बनाया। गढ़ाफोदे का इलाफा द्विखदयशाह के द्विम्मे में पड़ा
था। परम जोते जी फुछ गठ़वहु मद्दों ₹६।॥
जब वह मत्र् ऐ७३< डर में मर गाया तव उसका
गेढा पुत्र सुमागस्षिद्द गद्दो पर बैठा । >सके कई भाई थे। धममें से पृथ्यो-
दिएथशाद पु देशा
१०२ मध्य प्रदेश का इतिहास
सिंह ने अपने मन के अनुसार जञागीर न पाकर अपने भाई से विशेध
किया और वह लड़ने का उद्यत हो गया। प्ृथ्वीसिंह ने मरहठों को
लिख भेजा कि यदि तुम गढ़ाकाटा इलाका लेने में सहायता करो, तो में
तुमका चेोथ अर्थात् उस इलाके की आमदनी का चोथा हिस्सा दिया
करूगा। मरहठे छत्रसाल का यश तुरंत भूल गए और प्रथ्वीसिंह की
सहायता करने को तत्पर हो गए। सुभागलिंह हार गया ओर पृथ्ची-
सिंह गढ़ाकाटा का राजा बन बैठा ।
हब न आन
पोडश श्रध्याय
पराठे
ऊपर बता चुके हैं कि सन् १७३२ ई० में सागर का बहुत सा
भाग पेशवाओं के श्रधिकार में आ गया था। बारह वर्ष के भीतर
गढ़ाकादे पर भी उनका स्वत्व हो गया। इन सब इलाकों के प्रबंध के
लिये गोविदराव पंडित नियुक्त किया गया और उसका निवास-
स्थान रानगिर स्थिर किया गया। पीछे से उसने सागर में
किला बसवाया और वहां जाकर वह रहने लगा। कहते हैँ, गोविंद-
राव पंडित पेशवा का रसोइया था। एक दिन बाजीराव उपासे
थे, तब गाविंदराव ने राजा से कुछ बनाकर खा लेने के लिये आधी घड़ी
की मुहलत मॉगी। राजा ने श्राज्ञा दे दी, परंतु यह देखना चाहा
कि यह आधी घड़ी में कैसे निपट लेगा। गेविंदराव नदी के किनारे
गया और एक मुरदे का जलते देखा। वहाँ चिता की आंग में उसने
कुछ भू ज-भाँनकर अपना पेट भर लिया | पेशवा चकित हा गया और
वेल उठा, जे मनुष्य इतना कर सकता है वह जे। चाहे से! कर सकता
है? गोविंदराव के भाग्य खुल गए । पेशवा ने उसे बढ़ाना आरंभ कर
दिया और घ्ंत में उसे बु'देलखंड में अपना प्रतिनिधि नियुक्त कर दिया।
गे।विंदराव पंडित ने आसपास के इलाके दमाह इत्यादि पर अपना अधि-
पेड्श अध्याय १०३
कार जमा लिया, परतु सन् १७६८ ६० से कद पानीपत की छाडाई में
मारा गया | कहते है कि वह इतना मोटा था कि बिना दूसरे की
महायता के घोड़े पर सवार नहीं हा सफता था। इसी कारण वह
पानीपत से भाग नहीं पाया।
गेविदराव के पश्चात उसका लडऊा बाल्लाजी शम्रौर उसके
पश्चात् रघुनाधराव आपा साहब उत्तराधिकारी हुआ। इसके जमाने
में मडला भर जबलपुर जिले भी पेशवा के अधिकार में झा गए, परतु
सन् ६७€८ में उन्हें पेशवा ने नागपुर फे राजा रघुजी भेंसला के दे
डाला । धामानी भी शीघ्र द्वी भोंसला का मिज्त गई। रघुनाधराव सन्
१८०२ ई० में मर गया। वह्द उदारचरित्र था पर विद्वानों का बहुत
सत्कार किया करता था। उसके समय में सागर में सुप्रसिद्ध द्विदी
कवि पद्माकर रहता था। उसने रघुनाथराव की सल्लवार की यों
प्रशता की थी --
दाहन ते तेज ठिगुनी त्रिसूलन पै,
चिघ्तिन सै चाौगनी चल्लाफ चक्र चाली तैं।
फ्दे पद्मासर मद्दीप रघुनाथ राज,
ऐसी समसेर सेर सच्रुन पै घाली ते ।
पाँचगुनी पन््व तैं पचोस गुनी पावऊ तैं,
प्रकट पचास गुनी प्रलय प्रनात्ती सें।
साठ गुनी सस तें सहस्त गुनी खापन तें,
लास गुनी लूऊ से करोर गुनी काली हैं ॥
रघुनाधराव कोई सवान नहीं छोड गया, तब उसकी विधवा
रानियों ने सूबेदार विनायकराव फी सहायता से फाम चलाया सन्
१८१४ ६० में सिविया ने सागर का लूटा भार विनायकराव को कैद कर
लिया, परतठु पोन लाप रुपया लेऊर उसे छोड दिया। सनू १८९८ ई० में
जब पेशवा ने सागर भार दमेद्व फे इलाके सरकार अँगरेज को दे दिए,
तब रघुनाधराय फी रानियो--राधावाई शौर रुफावाई--पैौर विनायक
राव सूबेदार एवं भ्रन्य सरहठ़ा सरदारों फो ढाई लास रुपया सान्लाना
१०७ मध्य प्रदेश का इतिहास
पेंशन दीं गई। रानियों ने वल्लवंतराव को गोद लिया था। उसको
जबलपुर में रहने की आज्ञा दी गई। उसके भी कोई सनन््तान न थी।
उसने पंडित रघुनाथराव को गोद ले लिया। ये सागरवाले राजा
कहलाते थे ओर जबलपुर में रहते थे। इनको भी ५०००] सालाना
पेंशन मिल्नती थी ।
पेशवा ने जबलपुर श्र संडला द्वितीय रघुजी भोंसला को दे
दिए थे। इनके ससय सें उस कुशासन का आरंभ हुआ जिससे
उनके नाम की संज्ञा का अथे अराजकता हो
गया। अभी तक जब कभी कोई छुछ गड़बड़
करता है तो आरमीण बहुधा कह उठते हैं 'कैसन घोंसली! समाऊथे!
अर्थात् तू केसी गड़बड़ मचाता है। भोंसलों के हाथ में पड़ते ही जिले
में अनेक प्रकार का अन्याय आरंभ हा गया। भोंसल्ोों के प्राय: सभी
कारवारी प्रन्यायी और लुटेरे थे | केवल रुपया लूटना वे अपना कतेव्य
समझते थे। इसलिये जेसे बने, सीधे या टेढ़े, प्रजा का धन निकालने में
निशि-वासर तत्पर रहते थे। गाँव नीलाम करा दिए जाते थे परंतु यह
भी भरोसा नहीं रहता था कि लेनेवाला साल के अंत तक निवचद् जायगा।
कभी कभी ठेकेदार की खड़ो फसल कटने ही के पूब गाँव छीन लिया जाता
घा। ठेकेदार मुह देखते रह जाताथा। उसका परिश्रम भर लागत
धूल सें सिल्ष जाती थी। केवल अनेक प्रकार के कर ही नहीं लगाए
जाते थे, वल्कि धनिकों के घर की खत्रियों और पुरुषों का लांपठता
का देष लगाया जाता था। यदि घर के स्वामी ने अधिकारियों को
रुपया भर दिया तब ते ठीक, नहों ते! वह काठ में डाल दिया जाता था|
कुलटाएँ सरकार की ओर से नीज्ञाम कर दो जाती थीं और रुपया
खजाने में जमा हा जाता था | कोई उद्यम या व्यापार ऐसा नहीं था
जिस पर कर न लगाया जाता रहा हा । यदि कोई बाजार में भ्रपनी
चोज़ें बेचने को बैठे और इधर-उधर देखने लगे ते! उस पर भी कर
2 अल कल जे पक कक ३36
१--उत्तर के जिलों में जनता भोंसलो के राज्य के घोंसली राज्य, कहा
करती थी )
नागपुर के भोंसले
पाडश अध्याय श्ण्भर
छगा दिया जाता था, क्योंकि उसको असावधानी से चोरी की आशका
हो जाती थी, जिसकी रछा का वोक अधिकारियों पर पडता घा। यदि
फोई पानी वरसने के लिये भ्राराधना करें तो उस पर भी कर लग
जाता। यदि ईश्वर उसको सुन ले और पानी वरसने से कहों अधिक
पैदावार हो जाय ते फिर राजा उस भावी प्राप्ति का भागी क््योंन
समझा जाय इसलिये झ्राराधना के लिये कर क्यों न लगाया जाय।
यह जानने के लिये कि अमुऊ व्यक्ति धनवान है या नहीं, उसके यहाँ
की जूठी पत्तलें या देने इऊट्रो करके जाँच की जाती थी, कि वह्द घी
साता है या नहों | यदि धो का चिह मिला तो समझा जाता था कि
धनवान ऐ, उससे अधिकतर कर क्यों न वसूल किया जाय ९ विपत्तियों
का भरत यहाँ पर नहों है। जाता था ] यदि राजजाल से कोई बच गया
ते पिडारियों के दरेरों से बच जाना कठिन था। ये लोग टिंडी-
दल के समान अ्ररस्मात् हुट पडते थे शोर रहा-सहां सब छूट पाटकर
चपत हो जाते थे। राजा के अधिकारी उनका वाल नहीं छू सफते थे ।
मतल्व यद्द कि प्रजा की पोडा कुछ कुछ उस व्यक्ति फे मद्दाव्ु समर
की सी थी जिसका अनुमान तुलसीदास ने किया ऐ--प्र्धात् “प्रह-
भृहीत घुनि बात बस, तापर बीद्यो सार। वाहि पियाइय बारुणी, कहहु
फंघन उपचार ॥” परतु यह कुप्रबध धार अन्याय कब तक चल सकता
थो शीघ्र ही वह दिन आराया जब कि रैयत का इस 'मरहठी
घिसधिस! से छुटकारा मिला |
सन् ९८९७ ६० में आपा साइव फे चिगड खडे दाने पर ला
देस्टिग्न ने जनरल द्ार्डमैन का नागपुर की ओर चढाई फरने फी आज्षा
दी। दक्त सादव मैहर से ७ सितबर का एक प्मग्वा-
रेही और एक गोरे की पैदल परटन लेकर
रवाना हुआ | शेप संना पीछे रद गई इसलिये वद्द यिलहरी में ठहर कर
उसको घाट देखता रद्दा | प्रव में वद १७ सितबर फा जबलपुर फे निम्रट
आ पहुँचा परतु वहाँ सामना फरने फे लिये तीन हजार योद्धाओं की
सेमा तैयार मिलो | उनके पास ४ पोतल फी लोपे भी थीं। जनरल
ब्रिडिश राज्य
१०६ मध्य प्रदेश का इतिहास
ने अपनी तेोपे छिपाकर लगवा दीं। थोड़ी देर के पश्चात् दोनों ओर
से दनादन तेपे' दगने जल्गों । सैनिक झपने दाँव-पेंच करने लगे। श्रत में
दूसरे दिन प्रातःकाल जबलपुर की गढ़ी और शहर छोन लिया गया |
तभी से जबलपुर त्रिटिश सेना का निवास-स्थान हो गया। शासन-
प्रबंध के लिये तुरंत ही एक समिति बनाई गई जिसकी अध्यक्षता मेजर
शओत्राइन के! मिली | फिर सन् १८२० ई० में १२५ जिलों की एक कमिश्नरी
बनाई गई, जिसका नाम सागर व नर्म्मदा टेरीदरीज रखा गया। उसमें
जबलपुर का जिला सम्मिलित किया गया औ्रार जबलपुर में गवर्सर-जन-
रल का एक एजंट रहने सगा। जब सन् १८३४ ६० में पश्चिमेत्तर
देश ( वर्त्तमान संयुक्त प्रदेश ) का निर्म्माण हुआ तब उसमें सागर व
नम्संदा टेरीटरीज शामिल कर दी गई'।